शिवाज्ञा से हुई रामचरितमानस की रचना

रामचरितमानस

स्वामी जी ने पाण्डाल में कथा सुनने में लीन मौन साधे बैठे भक्तों की ओर देखा और ‘जय श्री राम’ का उद्घोष किया तो श्रद्धालुओं के ‘जय-जय श्री राम’ के उद्घोष ने आकाश को गुँजा दिया| स्वामी जी ने कथा की अविरल बहती धारा जारी रखते हुए कहा ‘‘समय से पहले और भाग्य से अधिक किसी को नहीं मिल सकता| देखो न, आराध्य सामने आए और तुलसीदास जी उन्हें पहचान नहीं सके| जो कार्य जिस समय होना है, तभी होता है|’’
स्वामी जी ने भक्तों के चेहरों पर उनकी जिज्ञासा को पढ़ते हुए कहा कि बाद में, संवत् १६०७ में मौनी अमावस्या पर बुधवार के दिन भगवान् श्री राम गोस्वामी जी के सामने पुन: प्रकट हुए| इस बार वे बाल रूप में आए और तुलसीदास जी को कहा ‘‘बाबा, हमें चन्दन दो|’ हनूमान् जी सब कुछ देख रहे थे| इस बार ङ्गिर तुलसीदास जी, धोखा न खा जाएँ और यह अवसर भी नहीं गवॉं दें, यह सोच हनूमान् जी ने तोते का रूप धारण कर यह दोहा बोला:
चित्रकूट के घाट पर भइ संतन की भीर|
तुलसीदास चंदन घिसे, तिलक देत रघुबीर॥
स्वामी जी ने कहा ‘‘अभी प्रभु के साक्षात् दर्शन का समय नहीं आया था| इसलिए हुआ यह कि प्रभु राम ने अपने हाथ से ही चन्दन ले लिया और तुलसीदास के ललाट पर लगा अन्तर्धान हो गए|’’
स्वामी जी ने कहा ‘‘प्रभु की लीला के पार पाना किसी के वश में नहीं| हनूमान् जी के इस संकेत के बावजूद तुलसीदास जी श्री राम के बाल रूप की अद्भुत छवि को देख ङ्गिर सुध-बुध भुला बैठे|’’
स्वामी जी ने कहा ‘‘ जो छब देखी पिया (प्रभु) की, तो में अपनी भूल गई|’’ यही हालत तुलसीदास जी की हो गई|
स्वामी जी ने कथा आगे बढ़ाई ‘‘तुलसीदास जी पर हनूमान् जी मेहरबान थे| उन्हें मार्गदर्शन देते रहते थे| उनकी ही आज्ञा से संवत् १६२८ में तुलसीदास जी अयोध्या की ओर चल पड़े| प्रयाग में उन दिनों माघ मेला चल रहा था| वे कुछ दिन वहीं ठहर गए| वहॉं उन्होंने ॠषि भारद्वाज और याज्ञवल्क्य का संवाद सुना|’’
स्वामी जी बोले ‘‘प्रयाग से तुलसीदास जी काशी गए और प्रह्लाद घाट पर एक ब्राह्मण के घर में रहने लगे| वहीं उनकी काव्यशक्ति जागी और संस्कृत में रामायण लिखना आरम्भ किया, लेकिन प्रभु की इच्छा के बिना कुछ नहीं हो सकता| वे दिन में जो पद्य रचते वे रात में गायब हो जाते| तुलसीदास जी चिन्ता में पड़ गए कि यह क्या हो रहा है? एक दिन उन्हें सपने में भगवान् शिव की आज्ञा मिली कि गीर्वाण भाषा में नहीं लिख, लोकभाषा में काव्य की रचना कर| सवेरे उठने पर उन्हें भगवान् शंकर के दर्शन हुए| महेश्‍वर का आदेश था कि अयोध्या जाकर वहीं श्रीरामायण लिखो| मेरे आशीर्वाद से तुम्हारी रचना सामवेद जितनी सङ्गल होगी|’’
स्वामी जी ने कहा ‘‘तुलसीदास जी शिवाज्ञा से अयोध्या चले गए| वहॉं वे सिद्ध पीठ में प्रतिदिन मात्र एकबार केवल दुग्धाहार करके रहने लगे| कुछ समय बाद संवत् १६३१ चैत्र शुक्ल नवमी मंगलवार का वह दिन उदित हुआ, जो तुलसीदास जी के लिए ही नहीं, बल्कि समूचे विश्‍व के लिए भाग्यशाली और महत्त्वपूर्ण साबित हुआ| उस दिन श्रीराम के जन्मदिन जैसा ही ग्रहयोग भी था|’’
स्वामी जी ने कहा कि ‘‘ऐसे पावन दिन भक्त शिरोमणि तुलसीदास जी ने श्रीरामचरितमानस लिखना शुरू किया| उमामहेश्‍वर, हनूमान् जी, गणेश जी, माता सरस्वती, शेष और नारद जी ने प्रकट हो उन्हें आशीर्वाद दिया|’’
स्वामी जी ने भाव-विभोर श्रद्धालुओं से कहा कि ‘‘जब व्यक्ति निष्ठा, लगन और परिश्रम से जुट जाता है, तो कोई कार्य असम्भव नहीं रहता| तुलसीदास जी ने भी ऐसा ही किया| उन्हें अजर-अमर करने वाला, सामवेद तुल्य एवं मंत्रमय श्रीरामचरितमानस २ वर्ष, ७ माह और २६ दिन में संवत् १६३३ में मार्गशीर्ष शुक्ल पञ्चमी अर्थात राम विवाह वाले दिन यह पुनीत कार्य पूर्ण हुआ|’’
इसके साथ ही स्वामी जी और भक्तों ने रामधुनी ‘जय राम, श्री राम, जय-जय राम…’ शुरू कर दी|•
क्रमशः

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