आदिगुरु शंकराचार्य हिन्दू धर्म के रक्षक एवं पुनरुद्धारक

धर्म-उपासना

आठवीं सदी के उत्तरार्ध में जब भारतवर्ष में सनातन धर्म अपने मूल अस्तित्व को खोने लगा था, बौद्ध, जैन आदि धर्मों ने सनातन धर्म की सत्ता को लगभग समाप्त ही कर दिया था, सनातन मतावलम्बी भी वैदिक शास्त्रों को भुलाकर अपने-अपने मत मानने लगे थे, ऐसे समय में एक ऐसे सन्त की आवश्यकता थी, जो वैदिक धर्म को पुनस्स्थापित कर सनातन धर्म का उद्धार कर सके|
वैदिक धर्म की ऐसी दुर्दशा देख स्वयं भगवान् शिव अपने अंशावतार से भारतवर्ष के दक्षिण प्रान्त में केरल राज्य के पूर्णा नदी के तटवर्ती कलादि नामक गॉंव में विद्वान् और धर्मनिष्ठ ब्राह्मण श्री शिवगुरु की धर्मपत्नी श्री विशिष्टा देवी के गर्भ से वैशाख शुक्ल पञ्चमी के दिन जन्मे| यही बालक आगे चलकर श्रीमद् आद्यगुरु शङ्कराचार्य जी के नाम से प्रसिद्ध हुआ|
उस समय में भारत के दक्षिण राज्यों में वैदिक एवं सनातन धर्म के विद्वानों का अभाव समझा जाता था| इस बात का साक्ष्य यह था कि बड़े-बड़े शास्त्रार्थों में दक्षिण का द्वार हमेशा बन्द ही रहा करता था| उस समय तक दक्षिण भारत में ऐसा कोई विद्वान् नहीं हुआ था, जो सभी वेद-वेदाङ्ग तथा उपनिषदों का ज्ञाता हो| इस कमी को सर्वप्रथम आद्यगुरु शङ्कराचार्य ने ही दूर किया था|
महज आठ वर्ष की आयु में ही सभी वेद-वेदाङ्गों तथा पुराणों का अध्ययन कर लेने के पश्‍चात् बालक शङ्कर ने संन्यास ग्रहण कर लिया| बाल्यावस्था में अपने पिता को खोने का दु:ख तथा इकलौती संतान होने के पश्‍चात् भी संन्यास धर्म धारण करना, ऐसा महान् कार्य कोई विभूति ही कर सकती थी|
माता से विदा लेकर शङ्कर नर्मदा नदी के तट पर स्थित गोविन्दपाद के आश्रम में प्रविष्ट हुए| गोविन्दपाद से ही संन्यास की सविधि दीक्षा ग्रहण कर बालक शङ्कर शङ्कराचार्य के नाम से जाने गए| गोविन्दपाद से हठ योग, राजयोग और ज्ञान योग की पूर्ण शिक्षा प्राप्त कर शङ्कराचार्य जी अपने गुरु की आज्ञा से वाराणसी के लिए रवाना हुए| आदिशेष के अवतार माने जाने वाले गोविन्दपाद जो कि गौड़पाद के शिष्य थे, उन्होंने शङ्कराचार्य जी को काशी जाकर वेदान्त सूत्र का भाष्य लिखने की आज्ञा दी| काशी में आकर शङ्कराचार्य जी को अपने प्रथम शिष्य सनन्दन की प्राप्ति हुई, जो आगे चलकर पद्मपादाचार्य के नाम से प्रसिद्ध हुए|
कहते हैं कि एक दिन भगवान् विश्‍वनाथ ने चाण्डाल के रूप में शङ्कराचार्य जी को दर्शन दिए और ब्रह्मसूत्र पर भाष्य लिखने और धर्म का प्रचार करने का आदेश दिया| वेदान्त सूत्र पर जब आप भाष्य लिख चुके थे, तो एक दिन एक ब्राह्मण ने गङ्गा तट पर एक सूत्र का अर्थ पूछा| उस सूत्र पर ब्राह्मण के साथ इनका आठ दिन तक शास्त्रार्थ हुआ| तत्पश्‍चात् उस ब्राह्मण स्वरूपी वेदव्यास ने अपने मूल रूप में प्रकट होकर आशीर्वाद दिया तथा अद्वैतवाद का प्रचार करने की आज्ञा दी|
मान्यताओं के अनुसार आद्यगुरु शङ्कराचार्य जी का आयु काल महज आठ वर्ष ही था, लेकिन आठ वर्ष की अवस्था में उन्हें संन्यास ग्रहण करने के कारण सोलह वर्ष की आयु प्राप्त हुई तथा भगवान् वेदव्यास ने प्रसन्न होकर इनकी सोलह वर्ष की आयु को बढ़ाकर 32 वर्ष कर दिया|
अद्वैतवाद एवं वेदान्त पर ग्रन्थ लिखने के अतिरिक्त यतिवर ‘श्रीविद्या’ के प्रवर्तक के रूप में भी जाने जाते हैं| एक दिन आचार्य ब्रह्ममुहूर्त के अन्धकार में मणिकर्णिका घाट की ओर स्नान करने जा रहे थे| उस समय उन्होंने देखा कि एक युवती अपने मृत पति के दाह संस्कार के लिए संकीर्ण मार्ग को रोके हुए बीच राह में बैठी भीख मॉंग रही थी| आचार्य शङ्कर को स्नान करने में देरी हो रही थी, अत: उन्होंने उस स्त्री से कहा कि, ‘‘मॉं! शव को एक ओर हटा लो, ताकि मैं निकल जाऊँ|’’ यह सुनकर शोकातुर स्त्री ने कहा कि, ‘‘हे महात्मा! आप ही इस शव को हटने का आदेश क्यों नहीं देते हैं?’’ आचार्य बोले, ‘‘यह शव तो प्राण विहीन हो गया है| इसमें हट सकने की शक्ति ही कहॉं है?’’ यह उत्तर सुनकर उस शोकातुर स्त्री ने आचार्य को सम्बोधित करते हुए कहा कि, ‘‘क्यों यतिवर, आपके मतानुसार तो शक्ति निरपेक्ष ‘ब्रह्म’ ही जगत् का कर्त्ता है| फिर शक्ति के बिना शव क्यों नहीं हट सकता?’’ स्त्री की इस विवेकमयी वाणी को सुनकर शङ्कर किंकर्त्तव्यविमूढ़ हो गए और गहन चिन्तन में पड़ गए, किन्तु उसी क्षण स्त्री और शव सब कुछ अदृश्य हो गया| यह दृश्य देख शङ्कराचार्य जी की समझ में सारी बातें आ चुकी थीं कि बिना शक्ति के शिव शवमात्र है| इस घटना के पश्‍चात् ही आद्यगुरु ने श्री उपासना प्रारम्भ की|
उन्होंने काशी, कुरुक्षेत्र, बद्रिकाश्रम आदि की यात्रा की तथा विभिन्न मतवादियों को शास्त्रार्थ में परास्त किया और अनेक ग्रन्थों की रचना की | प्रयाग आकर कुमारिल भट्ट से उनके अन्तिम समय में भेंट की तथा उनकी सलाह से मण्डनमिश्र के पास जाकर शास्त्रार्थ किया| बद्रीनाथ में आचार्य शङ्कर ने ब्रह्मसूत्र पर विशद् भाष्य लिखा, इस प्रकार धीरे-धीरे पूरे भारत में सनातन धर्म का उदय होने लगा| शङ्कराचार्य ने मानवता को वेदान्त का उपदेश देकर निष्काम कर्म, आत्मत्याग, क्षुद्र अहं भाव की विस्मृति, सार्वभौमिक प्रेम, प्रसन्नता, निर्भीकता तथा आत्मनिर्भरता का पाठ पढ़ाया| सम्पूर्ण भारत की यात्रा कर लेने के पश्‍चात् आद्यगुरु ने भारत की चारों दिशाओं में सनातन धर्म के कल्याण के लिए चार मठों की स्थापना की, जिनके मठाधीश वर्तमान में शङ्कराचार्य की उपाधि के नाम से जाने जाते हैं| यह मठ पश्‍चिम में द्वारकाधाम, पूर्व में पुरीधाम, उत्तर में ज्योतिर्धाम तथा दक्षिण दिशा में रामेश्‍वर धाम में स्थित हैं, जिनके नाम क्रमश: शारदा मठ, गोवर्धन मठ, ज्योतिर्मठ और शृंगेरी मठ हैं|
पॉंच वर्ष की अवस्था में कनकधारा स्तोत्र से एक गरीब ब्राह्मण परिवार का दारिद्र्‌य दूर करना, अपने गुरु की रक्षा के लिए बाढ़ के पानी को एक कमण्डलु में कैद करना, अपने शिष्यों से पुत्र के समान स्नेह करना, अद्वैतवाद को नहीं मानने वाले मतानुयायियों को स्नेहपूर्वक वेदान्त की शिक्षा देना, उग्र भैरव को अपने मस्तक के दान की अनुमति प्रदान करना, संन्यासी होते हुए भी मृत्यु के पश्‍चात् अपनी मॉं का अन्तिम संस्कार करना, स्वयं पर अभिचार कर्म करने वाले तांत्रिक अभिनव गुप्त को सब कुछ जानते हुए भी कुछ नहीं कहना आदि ऐसे अनेक उदाहरण हैं, जो आद्य गुरु शङ्कराचार्य जी महान् आध्यात्मिक पुरुष बनाते हैं|
शङ्कराचार्य जी ने लगभग 200 ग्रन्थों का प्रणयन किया था| उनके प्रमुख ग्रन्थ निम्नलिखित हैं :
1. ब्रह्मसूत्र (शारीरिक) भाष्य,
2. उपनिषद् भाष्य (ईश, केन, कठ, प्रश्‍न, माण्डूक्य, मुण्डक, ऐतरेय, तैत्तिरीय, छान्दोग्य, वृहदारण्यक उपनिषद् आदि पर भाष्य),
3. गीता भाष्य,
4. विवेक चूडामणि,
5. प्रबोध सुधारक,
6. उपदेश साहसी,
7. अपरोक्षानुभूति,
8. पञ्चीकरण,
9. प्रपञ्चसारतंत्रम्,
10. मनीषापच्चम्,
11. आनन्द लहरी स्तोत्र आदि|
जन्मपत्रिका विश्‍लेषण
आद्यगुरु शङ्कराचार्य जी का जन्म 788 ईस्वी से 820 ईस्वी के मध्य माना जाता है| उपर्युक्त जन्मपत्रिका इनकी सर्वाधिक रूप से प्रचलित जन्मचक्र है| इस कुण्डली के अनुसार इनका जन्म वैशाख शुक्ल पञ्चमी के दिन कर्क लग्न एवं आर्द्रा नक्षत्र में हुआ था| कई स्थानों पर इनका जन्म नक्षत्र पुनर्वसु माना जाता है, जो कि सत्य प्रतीत नहीं होता है|
शङ्कराचार्य जी की जन्मपत्रिका में सूर्य, मङ्गल एवं शुक्र बली होकर अपनी-अपनी उच्च राशि में स्थित हैं| बुध नीच राशिगत होकर नवम भाव में है| गुरु एवं शनि राशि परिवर्तन करते हुए क्रमश: अष्टम एवं नवम भाव में स्थित हैं| लग्नेश चन्द्रमा द्वादश भाव में तथा राहु-केतु अपनी स्वराशि में स्थित होकर क्रमश: तृतीय एवं नवम भाव में हैं|
अष्टमेश तथा नवमेश का राशि परिवर्तन तथा अष्टमेश शनि का नवम भाव में मोक्ष के कारक माने जाने वाले केतु एवं द्वादश भाव के स्वामी बुध के साथ युति होना एक श्रेष्ठ अद्वैतवादी विचारधारा वाले व्यक्तित्व का योग बना रहे हैं|
जहॉं द्वादशेश तथा तृतीयेश बुध नीच राशि में स्थित होकर भी नीच भङ्ग राजयोग बना रहा है, वहीं आत्मा एवं आत्मज्ञान का कारक सूर्य दशम भाव में अपनी उच्च राशि मेष में स्थित है| पञ्चमेश मङ्गल सप्तम भाव में स्थित होकर उच्च राशिगत है| इस प्रकार वह रुचक नामक पञ्चमहापुरुष योग का निर्माण कर रहा है तथा उच्च के सूर्य एवं कर्म भाव पर उसकी पूर्ण दृष्टि है|
लग्नेश चन्द्रमा का द्वादश भाव में स्थित होना तथा नवमेश एवं षष्ठेश गुरु का अष्टम भाव में स्थित होना, जहॉं उनके शारीरिक कष्टों को दर्शाता है, वहीं विपरीत राजयोग की सृष्टि भी करता है| इसके अतिरिक्त गुरु हर्ष योग का निर्माण भी कर रहा है|
नवमेश से गुरु केन्द्र में तथा लाभेश से शुक्र केन्द्र में स्थित होने के कारण यतिवर की जन्मपत्रिका में श्रेष्ठ फलकारक ब्रह्मयोग भी बन रहा है, जो उन्हें ब्रह्म के समान बनाता है| लग्नेश चन्द्रमा से बुध दशम भाव में स्थित होने के कारण इस योग को और भी अधिक बल की प्राप्ति होती है|
अष्टमेश और नवमेश में राशि परिवर्तन तथा द्वादशेश एवं केतु के साथ इनका सम्बन्ध महान् परिव्रज्या योग का निर्माण करता है| आद्यगुरु की जन्मपत्रिका में यह योग पूर्ण रूप से प्रस्फुटित हो रहा है| लग्नेश तथा गुरु का त्रिक भाव में स्थित होना अल्पायु को दर्शाता है| इसलिए शङ्कराचार्य जी अपने जीवन में विभिन्न घातों को सहन करते हुए महज 32 वर्ष की आयु में ही निर्विकल्पक समाधि में लीन हो गए| •

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