अखण्ड सत्य के द्रष्टा हैं कबीर

कबीरवाणी

भारत में अनेक सन्त-महात्माओं ने जन्म लेकर समाज को सच्ची राह दिखाई| संवत् 1455 में जब कबीर साहब का प्राकट्य इस धरा पर हुआ, वह समय राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक उथल-पुथल का था| समाज में अलगाव, भेदभाव, अत्याचार, घृणा-द्वेष की पराकाष्ठा विद्यमान थी| ऐसे कठिन समय में कबीर युग नायक की तरह सभी को प्रेम से, नहीं माने तो ललकार कर सही-उचित मार्ग पर ले आए और समाज में समता, एकता-स्थापित कर मानव अस्मिता एवं मानव गौरव की रक्षा की| उनकी इस भूमिका को नाभादास जी ने इस प्रकार कहा है – ‘‘पक्षपात नहीं वचन सबहिं के हित की भाखी|’’ कबीर से अधिक जोरदार शब्दों में मानवीय एकता, समरसता और समता का प्रतिपादन विश्‍व में किसी ने नहीं किया| वे मानवतावादी धर्म के संस्थापक थे| उन्होंने अपनी वाणी के माध्यम से समाज में एकता स्थापित की, जातिपाति की खाई पाटने की पूरी कोशिश की, रूढ़ीवादी विचारों का खण्डन किया| यही कारण है कि आध्यात्मिक जगत् में संत शिरोमणि कबीर साहब का नाम लोग बड़ी श्रद्धा एवं आदर से लेते हैं|

कबीर महान् युगद्रष्टा पूर्ण सद्गुरु
सत्य, प्रेम, करुणा के साक्षात् स्वरूप कबीर महान् युगद्रष्टा और पूर्ण सद्गुरु हैं| ‘सांच ही कहत और सांच ही गहत हों’ उनका सीधा- सच्चा-स्पष्ट मार्ग है| वे सत्य के बल पर परमात्मा की प्राप्ति का मार्ग बताते हैं – ‘सांच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप| जाके हृदय सांच है, ताके हृदय आप|’
वे स्वयं अजर, अमर, अविनाशी, मुक्त चेतन स्वरूप होते हुए भी जीवों के कल्याण के लिए और मुक्ति का मार्ग दिखाने के लिए अपनी इच्छा से चारों युगों में अलग-अलग नामों से आते रहे| सतयुग में सत्युसुकृत, त्रेता युग में मुनीन्द्र नाम से, द्वापर में करुणामय नाम से और कलियुग में कबीर नाम से अवतरित हुए हैं| ‘युगनि-युगनि हम आए चेतावा, अमर लोक से हम चलि आए, आए जगत मझारा हो’, ‘जीव दुखित देख भवसागर ता कारण पगु धारा हो|’
सन्त कबीर ने समाज को एक सूत्र में पिरोने का कार्य किया|
उन्होंने हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए –
‘‘भाई रे दुई जगदीष कहॉं ते आया,
कहु कौने बौराया| अल्लाह राम करीमा केशव,
हरि हजरत नाम धराया|’’

कबीर ने ऊँच-नीच, जाति-पाति के भेदभाव को समाप्त करने के लिए कहा –
‘‘जातिपाति पूंछे नहीं कोई,
हरि को भजे सो हरि को होई|’’

उन्होंने आगे कहा –
‘एकै त्वचा हाड़ मलमूत्रा, एक रुधिर एक गूदा|
एक बुन्द से सृष्टि रची है, को ब्राह्मण को शूद्रा|
रजोगुण ब्रह्मा, तमोगुण शंकर, सतोगुण हरि होई|
कहहि कबीर राम रमि, रहिये हिन्दु तुरक न कोई|’

अखण्ड सत्य के द्रष्टा हैं कबीर
कबीर साहब ने सदैव आँखों देखी सत्य बात को कहा है| उन्होंने पहले सत्य को देखा है, जाना है, जिया है, सहा है, तभी कहा है| वे इन्द्रियातीत, अविनाशी, अखण्ड सत्य के द्रष्टा हैं| तन में, मन में, नयन में, उनके रोम-रोम में सत्य ही चरितार्थ होता है| वे सत्य स्वरूपी हैं| सत्य बात कहने का उनका निराला ढंग है| खरी-खरी कहने में दुनिया में उनका कोई सानी नहीं है| कबीर ने सत्य के माध्यम से मनुष्य को सुखी बनाने का प्रयास किया है| चार दाग से न्यारे कबीर साहब की कथनी-करनी, रहनी-सहनी, आचार-विचार में कोई भेद नहीं था| आचार-विचार की शुद्धता के कारण ही, उन्होंने शरीर रूपी चादर को ज्यों का त्यों रख दिया था| इसीलिए उनकी वाणी में इतना ओज है और विश्‍वसनीयता है – ‘‘मैं रोऊ इस जगत् को, मोको रोवे न कोय| मोको रोवे सोचना, जो शब्द बोय ही होय|’’ कबीर साहब ने सामाजिक कुरीतियों, अंधविश्‍वास, अधर्म और पाखण्ड के जाल से निकालकर मानव को स्वस्थ आधार भूमि प्रदान की थी, जिससे समाज में मानव अपने दिलों में घृणा की जगह प्रेम, हिंसा की जगह अहिंसा, भेद की जगह अभेद और विषमता की जगह समता के मार्ग पर निर्विघ्न रूप से चलकर अपने जीवन को सार्थक बना सके|

कबीर का एक-एक वचन हजारों शास्त्रों का सार
महान् विचारक ओशो ने कहा कि कबीर जैसे साफ और स्पष्ट वचन पृथ्वी पर कभी नहीं बोले गए| कबीर का एक-एक वचन हजारों शास्त्रों का सार है| आज दुनिया में लोगों के पास धन-दौलत है, परन्तु सुख-शान्ति नहीं है| कबीर का कहना है कि ईश्‍वर की भक्ति के बिना आत्म संतोष नहीं मिलता| ‘भक्ति के बिना वैभव दूना, अंतस् सूना’ की कहावत चरितार्थ होती है| कबीर आध्यात्मिक चिंतन प्रणाली के पहले द्रष्टा एवं संस्थापक सद्गुरु हैं| आज विश्‍व के सभी समाजशास्त्री इस सत्य पर एकमत हैं कि सभी भेदभाव, कुरीतियों, अंधविश्‍वासों को दूर कर ही सुंदर आदर्श समाज का सृजन किया जा सकता है| कबीर साहब ने सभी प्रकार की कुरीतियों, जड़ मान्यताओं, आत्मशून्य पद्धतियों को अस्वीकार कर मानव को शाश्‍वत सत्य ग्रहण करने का संदेश दिया है|

वे एकता का संदेश देते हुए कहते हैं :
‘‘एकहि पवन, एकहि पानी, एक ज्योति संसारा|
एकहि खाक गढ़े सब भांडे, एकहि सृजन हारा|’’

कबीर मुक्ति की बात करते हैं –
‘‘जीवन मुक्त सो मुक्ता हो|
जब लग जीवत मुक्ता नाहीं,
तब लग सुख दुख भुक्ता हो|’’
कबीर आगे कहते हैं –
‘‘मुक्ति न होवे नाचे गाए,
मुक्ति न होवे मृदंग बजाये|
मुक्ति न होय साखी पद बोले|
मुक्ति न होवे तीरथ डोले|’’

मुक्ति के लिए कबीर कहते हैं –
‘‘जो नर जोग जुगति कर जाने,
खोजै आप सरीरा|
तिनके मुक्ति संशय नाही
कहत जुलाह कबीरा|’’

कबीर विश्‍वास के बल पर परमात्मा की प्राप्ति की बात करते हैं –
‘‘मोको कहॉं ढूंढता बंदे,
मैं तो तेरे पास में|
ना तीरथ में, ना मूरत में,
ना एकांत निवास में|
ना मंदिर में, ना मस्जिद में,
ना काशी कैलाश में|
ना मैं जप में, ना मैं तप में,
ना व्रत में उपवास में|
ना क्रिया ना करम में रहता,
ना ही जोग संन्यास में|
जोगी होतो तुरंत मिल जाऊं,
एक पल की तलाश में|
कहत कबीर सुनो भई साधो,
मैं तो हूँ विश्‍वास में|’’

माला फेरत जुग भया, गया न मन का फेर
वस्तुत: भक्ति ईश्‍वर के प्रति मन और बुद्धि का पूर्ण समर्पण है, तन की क्रिया नहीं| माला, जप, तप, व्रत, उपवास, पूजा आदि कर्मकाण्ड हैं, जो भक्ति की अनुभूति कराने में मात्र सहायक हैं| बुद्धि में भरोसा तथा हृदय में प्रेम की बयार भगवान् और संसार दोनों के साथ-साथ नहीं चल सकती| परमात्मा से अनन्य प्रेम होना चाहिए, क्योंकि मिश्रित प्रेम भगवान को पसंद नहीं है|

कबीर ने कहा –
‘माला फेरत जुग भया, गया न मन का फेर|
करका मन का डारि कर मन का मन का फेर|’
कबीर कहते हैं कि पतंगा जब दीपक के प्रकाश को देखता है, तो वह अपने मन पर अंकुश नहीं रख पाता| प्रकाश के प्रति अतिशय प्रेम के वशीभ्ाूत हो वह दीपक की ओर चला जाता है| वह प्रकाश की तेज रोशनी में अपने प्राण गवां देता है, परन्तु पीछे नहीं हटता| इसी तरह साधक का यह धर्म है कि वह हर परिस्थिति में चाहे वह गरीबी में हो या अमीरी में, रोग की अवस्था में हो या पूर्णत: स्वस्थ्य हो, उठते बैठते, चलते फिरते, सोते जागते, हर समय भगवान् का अखण्ड सुमिरन करता रहे :

‘सुमिरन ते मन लाइये जैसे दीप पतंग|
प्राण तजे छिन एक में जगत न मोड़े अंग|’

आज संत कबीर के विचारों को आत्मसात करने की आवश्यकता है| संत कबीर वाणी समाज में समरसता, एकता व अखण्डता बनाए रखने में सहायक है|•- ज्‍योतिप्रकाश खरे