अरावली पर्वत की गगनचुम्बी ऊँचाइयों के मध्य दक्षिणी राजस्थान की प्राचीन आदिवासी पट्टी का क्षेत्र आता है। इस क्षेत्र में चारों ओर फैली हरियाली के मध्य धीरे-धीरे सरगम छेड़ती महानदियॉं हैं। माही, सोम, जाखम और अनेक नदियों के द्वारा वरदान बने इस क्षेत्र में स्थान-स्थान पर मनमोहक झीलें, तालाब और उनके आस-पास अनेक प्रकार के जंगली पुष्पों, वृक्षों और लताओं की प्राकृतिक छटा निराली है। इस मनोरम क्षेत्र में लँगोट कसे आदिवासी तीर-कमान सँभाले नंगे बदन बेफिक्र घूमते नजर आते हैं। इन्हीं आदिवासियों के क्षेत्र में एक गॉंव है, जहॉं अनगिनत संख्या में टेराकोटा की बनी प्राचीन लोक देवी-देवताओं की मूर्तियों का खजाना बिखरा हुआ है।
यह क्षेत्र बॉंसवाड़ा जिले में आता है। बॉंसवाड़ा जिला मुख्यालय भी है। यहॉं से पश्चिम दिशा में एक सड़क पौराणिक काल के वाग्वर प्रदेश में आती है। यहॉं अनेक प्राचीन मन्दिर हैं, परन्तु इन सभी से अलग चुम्बकीय आकर्षण-सा हर दर्शक को खींचने वाला चमत्कारी शक्तिपीठ है ‘देवी त्रिपुरा सुन्दरी’ का। त्रिपुरा सुन्दरी का यह मन्दिर उमरई गॉंव के तलवाड़ा नामक स्थान पर हरी-भरी उपत्यकाओं के मध्य स्थित है। रास्ते का मजा तो बस अपना ही है। हरियाली, सुहाने और मनोहारी मैदानों को चीरती सड़क त्रिपुरा सुन्दरी के क्षेत्र में पहुँचती है। रास्ते में कटोरे की भॉंति लबालब भरे तालाब, छोटे-छोटे नाले कॉंच की तरह चिलकी मारते हैं। अनगिनत झुण्डों में पारम्परिक देहाती भील-भीलनियॉं अपने हाथों में पकड़े डण्डों पर लाल कपड़े को फहराते चलते हैं और बागड़ भाषा में कहते हैं, ‘तरताई (त्रिपुरा) माता की जय।’
मूलतः उमरई (तलवाड़ा) पॉंचाल ब्राह्मणों का एक छोटा परन्तु सर्वचर्चित ग्राम है, जिसमें मॉं त्रिपुरासुन्दरी के मन्दिर का भव्य एवं विशाल द्वार सभी का स्वागत करता है। वनवासी परिवार इसमें प्रवेश करते ही जमीन पर लेटकर ‘नवाजुगणे नन्दनमाता। त्रणजुग ने तरताई माता।’ गीत गाने लगते हैं। इसी के पास भैरव मन्दिर है और उसी के आगे कालिका और सरस्वती देवी की मनोहारी प्रतिमाएँ हैं। आगे के दालानों को पार करने के पश्चात् त्रिपुरा सुन्दरी देवी मन्दिर की सीढ़ियॉं हैं। यह सब देखते ही भक्तगण आनन्द विभोर होकर नाचने लगते हैं। अन्दर प्रवेश करते ही सतरंगे प्रकाश की दुनिया में जैसे भक्त आ गया हो। उसके ठीक सामने १८ भुजाओं वाली चमत्कारी शक्तिपीठ की अधिष्ठात्री देवी महामाया त्रिपुरा सुन्दरी की अति सुन्दर प्रतिमा प्रतिष्ठित है। यह प्रतिमा शास्त्रोक्त तन्त्र विधि से और दमकते जीवित वशीकरण करते काले रंग की है। प्रतिमा के प्रत्येक ओर से अवलोकन करते हुए त्रिपुरा सुन्दरी मॉं का सौन्दर्य मन को एकाएक स्थिर कर देता है। प्रतिमा के नख, शिख और मुखमण्डल की रचना शिल्पकला की उत्कृष्ट कलाकृति है। बस यही एक कारण है कि आदि शंकराचार्य ने ‘आनन्द लहरी’ और ‘सौन्दर्य लहरी’ जैसे काव्य की रचना में मॉं त्रिपुरा सुन्दरी के मुखमण्डल, नयन, अधर, वक्ष, नाभि, हस्त, पाद आदि अंगों का सौन्दर्य वर्णन सुन्दर रूप में किया है, जो पूर्ण रूप से लालित्य प्रधान है।
त्रिपुरा सुन्दरी की स्थापना और शक्तिपीठों में इसका स्थान होने के पीछे एक लम्बा पौराणिक साहित्य और प्राच्य विद्या के प्रमाण इससे जुड़े होना है। इस पीठ का सम्बन्ध शिव तथा सती से जुड़ा है। सती द्वारा अग्निकुण्ड में दाह और शिव द्वारा उसका शव लेकर आकाश में विचरण एवं विष्णु के चक्र से सती के अंग-प्रत्यंग विभिन्न स्थलों पर गिरने से है। जहॉं-जहॉं सती के शव के अंग-प्रत्यंग गिरे, वहीं शक्तिपीठों की स्थापना हुई। कुछ ग्रन्थों में कहा गया है कि ब्रह्मा, विष्णु माया से शव में प्रवेश कर गए और शव गल-गलकर गिरने लगा। पहले चार पीठ आत्मपीठ, पारापीठ, योगपीठ और गुह्यपीठ प्रमुख थे। ये बाद में ८, १८ और फिर ५१ बने। इतिहास के अनुसार चौथी शताब्दी में गुप्तकाल के दौरान तीन शक्तिपीठों की मान्यता थी। सातवीं शताब्दी में ह्वेनसांग ने अपने वर्णन में कामरूप देवी का उल्लेख किया है। दरअसल पुरातत्त्ववेत्ता शिव-शक्ति के प्रतीक चिह्नों को हड़प्पा काल से मानते आ रहे हैं। इस आशय से शक्तिपीठों के स्थान के बारे में जानकारियॉं रहस्यमय हैं। अंग-प्रत्यंग और उनके अनुसार देवी, भैरवों की जानकारियॉं यदि साफ हैं, तो उनके अधिकृत स्थलों का विवरण धुँधलाता है। जैसे कि शव की आत्मा के मुख्य केन्द्र ब्रह्मरंध (तीसरे नेत्र) का स्थान ज्वालामुखी के निकट हिंगुल माना गया है। हिंगलाज की देवी कोहरी और भीमलोचन शिव हैं। ब्रह्मरन्ध्र के पश्चात् मुखवृत्त पर वाग्वर प्रदेश में गिरना भी बताया गया है। इस बारे में श्लोक भी है, ‘वाहरी त्रिपुरा चैना वाग्मती, नील वाहिनी।’ इससे स्पष्ट होता है कि त्रिपुरा सुन्दरी यानि मुखवृत्त की देवी वाग्वर इलाके में है और यह वर्तमान बॉंसवाड़ा (राजस्थान) जिला क्षेत्र है। इस आशय के ठीक विपरीत में विद्वानों ने दक्षिणपाद (पैर) त्रिपुरा में गिरने का नामोल्लेख किया है और त्रिपुरा की देवी को ‘त्रिपुरा सुन्दरी’ कहा है, लेकिन उसमें मुखवृत्त का नहीं होना, आदि शंकराचार्य की आनन्द लहरी और सौन्दर्य लहरी की छवि पर खरा नहीं उतरता। इसलिए बॉंसवाड़ा वाली बात अधिक वजनदार लगती है और प्रामाणिक भी।
मॉं त्रिपुरा सर्वमंगला हैं। वे मंगलमयी एवं समस्त मंगलों की खान हैं। वे भगवान् शिव की आद्याशक्ति शिवा हैं। जगदम्बा त्रिपुरा के दर्शन से भक्त चतुवर्ग को प्राप्त करता है, जो सत्यानन्द स्वरूपिणी हैं। धन-धान्य से उसका गृह परिपूर्ण रहता है। जो मनुष्य जिस भाव और कामना से श्रद्धा सहित मॉं त्रिपुरा सुन्दरी के दर्शन और पूजन करता है, उसे उसकी भावना के अनुरूप अतिशीघ्र सिद्धि प्राप्त होती है। मॉं त्रिपुरा की यहॉं स्थित प्रतिमा सिंह पर सवार अष्टदशी भुजाएँ लिए है। भुजाओं में 18 प्रकार के अस्त्र-शस्त्र हैं। देवी के चरण-कमल के नीचे प्राचीन काल का एक यन्त्र बना हुआ है, जो श्रद्धालुओं और भक्तों के लिए चमत्कारी है। प्रतिमा के पृष्ठतल पर भैरव, देव-दानव संग्राम और देवी के शस्त्रास्त्र अंकित हैं। मॉं त्रिपुरा की प्रतिमा काले पाषाण की है, लेकिन पृष्ठभूमि में काले रंग के काष्ठ को काम में लिया गया है और समय के साथ-साथ काष्ठ भी पाषाण-सा कठोर बन गया है।
मॉं के इस मन्दिर की मूल स्थापना कब हुई? इसका कोई अधिकृत प्रमाण हमें नहीं मिलता, परन्तु इस मन्दिर के उत्तर भाग की ओर हम गए, तो वहॉं हमें सम्राट् कनिष्क के काल का एक शिवलिंग देखने को मिला, जिसकी पुरातत्त्व पुष्टि भी सत्य हुई। इससे यह प्रतीत होता है कि उक्त काल से पूर्व यह मन्दिर अस्तित्व में रहा होगा। ज्ञात हुआ कि जिस स्थान पर आज भव्य मन्दिर है, उसके आस-पास कोई नगर था, जिसे ‘गढ़पोली’ कहते थे। इसे दुर्गापुर नाम से भी पुकारा गया। इसका शासक नृसिंह शाह था। प्राप्त शिलालेख में इसके पॉंच पुत्र दर्शाए गए हैं। इस मन्दिर के आस-पास सीतापुरी, शिवपुरी और विष्णुपुरी नाम के तीन दुर्ग थे, जिससे प्रतीत होता है कि तत्कालीन समय में इस शक्तिपीठ को अत्यधिक महत्त्व प्राप्त था।
इस शक्तिपीठ की पूजा-अर्चना के प्राचीन होने के अनेक प्रमाण प्राप्त हुए हैं। परमार शासकों के समय इस देवी की पूजा-अर्चना की विशेष व्यवस्था रही। यहॉं पर भगवान् विष्णु की क्रिया पद्धति से यज्ञ सम्पन्न होने के भी प्रमाण मिले हैं। मन्दिर के कुण्ड-मण्डप से प्राप्त 14वीं सदी के शिलालेख से यह बात जानने को मिली कि दूर-दूर के शासकों द्वारा त्रिपुरा सुन्दरी के चमत्कार से प्रभावित होकर उनकी उपासना की जाती थी। गुजरात के सम्राट् सिद्धराज जयसिंह तथा मालवा के यशस्वी सम्राट् वीर विक्रमादित्य भी इस देवी की उपासना करने वाले शासकों में से थे। अन्य शिलालेखों के अनुसार त्रिपुरा सुन्दरी मन्दिर का जीर्णोद्धार 1957 विक्रम संवत् में पॉंचाल जाति के पाता भाई चादॉं भाई लुहार ने करवाया था।
यह घटना भी लोग गुहारते उचारते हैं कि एक दिन मॉं त्रिपुरा सुन्दरी भिखारिन का रूप बनाकर भिक्षा मॉंगने यहॉं की एक खदान के द्वार पर पहुँची, परन्तु पॉंचालों ने उसकी ओर कोई ध्यान नहीं दिया, जिससे वे रुष्ट होकर चली गईं और उसके जाने के कुछ समय पश्चात् खदान बैठ गई। अनगिनत लोग उसमें दबकर अपनी जान से हाथ धो बैठे। उल्लेखनीय है कि यह फटी खदान अभी भी मन्दिर के पास दिखाई देती है। अन्ततः मॉं त्रिपुरा को प्रसन्न करने के लिए पाता-भाई चॉंदा भाई ने मन्दिर का जीर्णोद्धार करवाया था। पुनः उक्त मन्दिर का जीर्णोद्धार १६वीं सदी में करवाया गया। विक्रम संवत् 1930 एवं 1993 में पॉंचाल समाज द्वारा मन्दिर पर नवीन शिखर चढ़ाया गया। गुजरात के अलावा मेवाड़, मालवा और मारवाड़ जैसे राज्यों के सिरमौर अधिपति भी इसी देवी त्रिपुरा सुन्दरी के परम भक्त थे। गुजरात के सोलंकी सम्राट् सिद्धराज जयसिंह की तो त्रिपुरा सुन्दरी इष्ट देवी थीं। सिद्धराज अनेक बार उपासना के लिए इस मन्दिर में आया करते थे। एक बार सिद्धराज अपनी रानियों के साथ माता की पूजा करने के लिए पधारे। एक रात्रि में जब रानियॉं मन्दिर के प्रांगण में गरबा नृत्य कर रही थीं, तब मॉं त्रिपुरा सुन्दरी भी सोलह शृंगार के साथ इस गरबा नृत्य में सम्मिलित हो गईं। एक अपरिचित सुन्दरी स्त्री को देखकर रानियों को शंका हो गई। थोड़ी देर में वह अनजान स्त्री भी प्रत्येक रानी के साथ पुनः दिखाई देने लगी। इस क्रिया में जब सन्देह काफी बढ़ गया तो गरबा नृत्य बन्द कर दिया। इससे वह अनजान स्त्री सभी से अलग-थलग होकर मन्दिर के दक्षिणी चबूतरे पर सरस्वती देवी की प्रतिमा के पास बैठ गई। उसी समय राजा सिद्धराज भी वहॉं पहुँच गए और उन्होंने वहीं साक्षात् मॉं त्रिपुरा सुन्दरी के दर्शन किए, तब देवी ने राजा से कहा, ‘अरे सिद्धराज! मुझे भूख लगी है। तुम अपनी सबसे प्रिय वस्तु हमें खिलाओ।’ देवी के अनन्य भक्त राजा सिद्धराज ने कोई विलम्ब नहीं किया और कहा, ‘मॉं मैं अभी जाकर लाता हूँ।’ सिद्धराज ने अपनी आराध्या से कह तो दिया, लेकिन वे खुद पशोपेश में फँस गए। वे स्वयं कुछ निर्णय नहीं ले पा रहे थे कि करें तो क्या करें? उनकी यह स्थिति देखकर मॉं त्रिपुरा सुन्दरी ने अपने एक अन्य भक्त मालव नरेश जगदेव परमार को स्मरण किया जो उस समय शिकार खेलने गए हुए थे। देवी के चमत्कार से मालव नरेश को शिकार के स्थल पर ही देवी की वाणी सुनाई पड़ी, अतः राजा जगदेव ने एक क्षण भी देरी नहीं की और उसने ५० घुड़सवारों को लेकर शीघ्र त्रिपुरा सुन्दरी के मन्दिर पर कूच कर दिया। उस समय मालव नरेश यद्यपि मन्दिर से अत्यधिक दूर थे, परन्तु देवी के चमत्कार से यह दूरी राजा ने एक घण्टे में ही तय कर ली।
जगदेव परमार के अलावा उसके अन्य घुड़सवारों को भी इस चमत्कार का आश्चर्य हुआ, परन्तु जगदेव जानते थे कि यह चमत्कार मॉं त्रिपुरा सुन्दरी का है। इस प्रकार जब वे अपने घुड़सवारों के साथ मन्दिर के तीसरे परकोटे पर बने द्वार पर पहुँचे तो उन्हें अन्दर हो रहे गरबों की आवाज साफ सुनाई देने लगी, तब राजा जगदेव ने अपने घुड़सवार सैनिकों को वहीं रोक दिया तथा खुद अकेले ही अन्दर प्रवेश किया। मन्दिर के प्रथम द्वार पर स्वयं देवी विराजमान थीं। राजा जगदेव ने माता को प्रणाम किया, तो उसने पुनः वही शब्द दोहराए, ‘मैं भूखी हूँ, मुझे शीघ्र अपनी प्रिय वस्तु लाकर दो।’
राजा जगदेव ने भी राजा सिद्धराज की तरह कहा, ‘अभी जाकर लाता हूँ।’ वे आज्ञा लेकर मन्दिर के बाहर आ गए। जगदेव ने शीघ्र अपने दो-चार सैनिकों को साथ लिया और एक थाल मँगवाया। वे अन्दर आए, तब जगदेव के अनुरोध पर दो सैनिकों ने उनका मस्तक काटकर उस थाल में रखा और देवी की सेवा में समर्पित कर दिया।
माता त्रिपुरा सुन्दरी राजा जगदेव की अनन्य भक्ति से प्रसन्न हो गई। तभी एकाएक राजा जयसिंह सिद्धराज भी वहॉं पहुँच गए। उनसे यह सब वहॉं देखा नहीं गया और उन्होंने देवी से प्रार्थना की, ‘यदि वे उन पर प्रसन्न हैं, तो राजा जगदेव को पुनर्जीवित करें।’ देवी की माया और चमत्कार से अगले ही क्षण मन्दिर के तीसरे परकोटे पर मालव नरेश जगदेव अपने सैनिकों के साथ बैठे दिखाई दिए। इस प्रकार के अनेक चमत्कार यहॉं हुए, जो यहॉं की खुदाई में मिले मूर्ति शिल्प प्रमाणों से सत्य साबित हुए हैं।
माता त्रिपुरा सुन्दरी का यह चमत्कारी शक्तिपीठ ‘वाग्वर’ अर्थात् राजस्थान के दक्षिण भाग में स्थित बॉंसवाड़ा जिले में है। बॉंसवाड़ा मुख्यतः आदिवासियों का प्रदेश है। सभी आदिवासी माता त्रिपुरा सुन्दरी के परम भक्त हैं और प्रत्येक रविवार को मन्दिर में भारी संख्या में श्रद्धालु आते हैं। यहॉं अनेक स्त्रियॉं मन्नतें मॉंगती हैं। आस-पास रहने वाले हजारों आदिवासी अपने गीतों के माध्यम से माता त्रिपुरा सुन्दरी का स्तवन करते हैं।
राजस्थान के राजाओं द्वारा दक्षिण राजस्थान की बॉंसवाड़ा, डूँगरपुर, उदयपुर, चित्तौड़गढ़ आदिवासी पट्टी भील राजाओं के राज में होने के कारण माता त्रिपुरा सुन्दरी भीलों, सहरियों तथा मीणों की लोकदेवी रही हैं। महामान्त्रिक, तान्त्रिक और कापालिकों ने माता त्रिपुरा सुन्दरी की संकल्पना चित्र में उसके आसन के चार स्तम्भों के रूप में ब्रह्मा, विष्णु, महेश और रुद्र बताए हैं। उनके ऊपर शिव लेटे हैं। शिव की नाभि से प्रस्फुटित कमल पुष्प पर १८ भुजाओं वाली, पूरे सौन्दर्य और यौवन में माता त्रिपुरा सुन्दरी मन्त्रमुग्धा लालित्य लिए आसीन हैं। इस मन्दिर में शेर की पीठ पर खिले कमल पुष्प पर देवी को आरूढ़ दिखाया गया है। यूँ तो त्रिपुरा सुन्दरी के इस शक्तिपीठ में प्रतिदिन हजारों श्रद्धालु दर्शनार्थ आते हैं, लेकिन नवरात्र के दौरान यह संख्या कई गुना बढ़ जाती है। यहॉं नियमित रूप से गरबे होते हैं। त्रिपुरा सुन्दरी सर्वमंगला हैं। वे करुणावतार हैं और त्रिपुरा की दुर्गतिनाशिनी दुर्गा हैं। ध्यान से देखें तो इस आशय का प्रमाण धार्मिक ग्रन्थों में भी प्राप्त होता है और उसी के बाद ‘दुर्गाय नमः’ होता है। प्रतिवर्ष आसोज नवरात्र और चैत्र नवरात्र में नवमी को मॉं त्रिपुरा सुन्दरी का विशाल मेला लगता है, जिसमें भारत के अनेक राज्यों से श्रद्धालु तथा स्थानीय आदिवासी, भील-भीलनियॉं अपनी परम्परागत रंग-बिरंगी पोशाक में गरबा करती हैं। इस मन्दिर का निर्माण सन् 1970 में पूरा हुआ। मन्दिर की व्यवस्था पॉंचाल समाज के हाथों में है। नवरात्र में दूर-दूर से शक्ति उपासक तथा महामान्त्रिक साधना के लिए मॉं त्रिपुरा सुन्दरी की भुवन मोहिनी मुखाकृति के समक्ष यज्ञ करते हैं।
त्रिपुरा सुन्दरी का यह स्थल न केवल एक शक्तिपीठ के रूप में प्रसिद्ध है, अपितु पर्यटन के लिए भी आकर्षण का केन्द्र है। बॉंसवाड़ा मुख्यालय से अनुपम अद्वितीय सौन्दर्य के त्रिपुरा सुन्दरी क्षेत्र में प्रवेश करते ही आहड़ काल से गुप्तकाल के स्वर्ण वैभव के शेष रहे अवशेष मिलेंगे। सदानीरा माही नदी और अरावली का सरसब्ज क्षेत्र, रंगीन हरियाली वादियॉं प्रत्येक श्रद्धालु पर्यटक को आमन्त्रण देती दिखती हैं। इस क्षेत्र में उत्खनन से प्राप्त प्रतिमाओं का मन्दिर परिसर में ही संग्रहालय है। यहॉं विशाल धर्मशाला बनी हुई है, जिसमें हजारों व्यक्ति एक साथ विश्राम कर सकते हैं। मन्दिर तक पहुँचने के अनेक मार्ग हैं। उदयपुर के डबोक हवाई अड्डे से यह स्थल २०० कि.मी. दूर है। अहमदाबाद, डूँगरपुर, इन्दौर आदि स्थानों से यह बस मार्ग द्वारा जुड़ा हुआ है। रतलाम रेलवे जंक्शन (दिल्ली-मुंबई रेलमार्ग) से इसकी सड़क दूरी लगभग 100 कि.मी. है। बॉंसवाड़ा से यहॉं तक पहुँचने के लिए बस और टैक्सी हमेशा उपलब्ध रहती हैं। – ललित शर्मा
