सामान्य तौर पर भारत में दशहरा का पर्व बुराई पर अच्छाई की जीत के स्वरूप में रावण दहन के रूप में मनाया जाता है, परन्तु हिमाचल प्रदेश के कुल्लू नामक स्थान पर दशहरा उत्सव को मनाने का कारण यह नहीं होकर कुछ और है| स्थानीय विश्वास के अनुसार कुल्लू में दशहरा उत्सव जो कि सात दिवस तक बड़े ही धूमधाम से मनाया जाता है| इसकी शुुरुआत राजा जगतसिंह ने 17वीं सदी में की थी| राजा जगत सिंह सन् १६३६ में सिंहासन पर विराजमान हुए| कान के कच्चे जगत सिंह बहुत शीघ्र दूसरों की बातों में आ जाया करते थे| एक बार किसी दरबारी के भड़का दिए जाने पर उन्होंने एक ब्राह्मण पर बहुत सारे मोती रखने का आरोप लगाकर उसे राजकोष में जमा करवाने का आदेश दिया| गरीब ब्राह्मण ने अपनी सफाई में राजा को कहा, लेकिन राजा टस से मस नहीं हुआ| अन्त में भयभीत होकर उसने राजा से अनुरोध किया कि वह जब मनीकरण के दौरे पर आएँगे, तो वह उन्हें मोती दे देगा| राजा जब मनीकरण के दौरे पर गए, तब उस गरीब ब्राह्मण ने अपने परिवार को झोपड़ी में बन्द कर लिया और आग लगा ली| खुद तेज हथियार लेकर अपने शरीर के टुकड़े काट-काटकर अग्नि में डालता चला गया| जैसे ही राजा उसके निकट पहुँचा, तो उसने अपना शरीर अग्नि को भेंट कर दिया| इस घटना को देखकर राजा अत्यन्त व्याकुल हो उठे| उन्हें कई दिनों तक यह घटना विचलित करती रही| अन्त में ब्रह्म हत्या से पीड़ित राजा जगत सिंह दु:ख से छुटकारा प्राप्त करने के लिए अपने गुरु किशनदास के पास गए, जो कि एक सिद्ध महात्मा थे| गुरु किशनदास जी ने राजा को ब्रह्म हत्या से मुक्ति के लिए अयोध्या से रघुनाथ जी की प्रतिमा लाकर कुल्लू में स्थापित करने और अपना सारा राज्य रघुनाथ जी के चरणों में अर्पित करने का आदेश दिया, परन्तु अयोध्या से मूर्ति लाना आसान कार्य नहीं था और न ही इस कार्य को करने के लिए कोई व्यक्ति राजी हुआ| गुरु किशनदास जी के एक शिष्य दामोदर की सहायता से राजा ने दशहरा के दिन रघुनाथ जी की मूर्ति को लाकर कुल्लू में स्थापित किया तथा उनके चरणों में अपना सम्पूर्ण राज्य न्यौछावर कर दिया| इसी खुशी में ढालपुर मैदान में एक बहुत बड़े यज्ञ का आयोजन किया गया| इसलिए ऐतिहासिकता के आधार पर कुल्लू दशहरा विजयादशमी के दिन आरम्भ होता है| दशहरे के प्रथम दिवस रघुनाथ जी का रथ अपरिमित गहनों और विभिन्न सुन्दर वस्तुओं से सजाया जाता है| रघुनाथ जी को उनके मन्दिर सुल्तानपुर से लाकर रथ पर बिठा दिया जाता है| कुल्लू का प्रसिद्ध देवता यहॉं आकर प्रभु भक्ति करते हुए नृत्य करता है| तत्पश्चात् राजा की वंशावली के लोग रथ के फेरे लेते हैं| इस आयोजन के पश्चात् स्थानीय लोगों द्वारा आदर के साथ रथ को रस्सों से बॉंधकर मैदान के दूसरी ओर ले जाया जाता है, जहॉं सात दिवस के लिए रघुनाथ जी का अस्थायी बेड़ा डाला जाता है| सात दिवस तक यह उत्सव निरन्तर चलता रहता है| इन सात दिवसों में विभिन्न प्रकार के उत्सव मनाए जाते हैं| इस प्रकार कुल्लू का दशहरा का उत्सव का आधार रावण वध अथवा देवी का उत्थापन नहीं होकर रघुनाथ जी को समर्पित है| सम्पूर्ण भारत में यह एक अनोखी ऐतिहासिक परम्परा है|
