पितृदोष अर्थात् ऐसा दोष जो पितरों से सम्बन्धित हो| यहॉं पितृ शब्द का अर्थ पिता नहीं होकर पूर्वजों से होता है| ये वह पूर्वज होते हैं, जो मोक्ष की प्राप्ति अथवा मुक्ति प्राप्त नहीं होने के कारण पितृलोक में विचरण करते रहते हैं और परिजनों से भी इनका एक विशेष मोह होता है| जब श्राद्ध आदि क्रियाएँ नहीं किए जाने के कारण अथवा किसी अन्य कारणवश ये रुष्ट हो जाएँ, तो उसे पितृदोष कहते हैं|
हिन्दू धर्म में माना जाता है कि मृत्यु के पश्चात् व्यक्ति की देह का नाश हो जाता है, लेकिन उसकी आत्मा कभी नहीं मरती है| वह अनश्वर है| जिस प्रकार हम स्नान के पश्चात् प्रतिदिन नवीन वस्त्र धारण करते हैं, उसी प्रकार से यह आत्मा भी मृत्यु के पश्चात् एक देह को छोड़कर नवीन देह धारण करती है, लेकिन यह भी माना जाता है कि यदि मृत्यु के समय किसी प्रकार की वासना अथवा कर्मफल शेष रह जाए, तो उसका भोग यह आत्मा पितर, प्रेत, कीट-पतंग आदि योनियों के माध्यम से करती है| इन योनियों में प्रेत योनि को प्राप्त करने वाले व्यक्ति वे होते हैं, जो दुर्घटना अथवा अकाल मृत्यु के शिकार होते हैं| अधिकांश व्यक्ति मृत्यु के पश्चात् पितृयोनि को प्राप्त होते हैं और जब इनका निश्चित समय पूरा हो जाता है, तो वे अन्य देह धारण कर लेते हैं|
पितृगण भी सामान्य मनुष्य के समान ही दु:ख, प्रसन्नता, भूख-प्यास, मोह-ममता आदि मानसिक संवेगों का अनुभव करते हैं| यदि पितृयोनि में गए व्यक्ति को किसी प्रकार का कष्ट हो, भूख-प्यास की अधिकता हो अर्थात् उनके परिजनों के द्वारा उनकी क्षुधा के लिए श्राद्धकर्म नहीं किए जाएँ, तो पितर उस योनि में निर्बलता का अनुभव करते हैं और अपने परिजनों से नाराज हो जाते हैं|
पितृलोक में इन पितृगणों के पास कुछ अतिरिक्त क्षमताएँ एवं शक्तियॉं भी होती हैं| मोह से बँधे होने के कारण ये अपने परिजनों के सम्बन्ध में चिन्ता का भी अनुभव करते हैं और उनकी सुख-समृद्धि की वांछना करते हैं| यदि ये निर्बल हों, तो मनुष्य के लिए पितृदोष आदि का निर्माण करते हैं और चाहकर भी उसकी किसी भी प्रकार से सहायता नहीं कर पाते हैं, और यदि रुष्ट हो जाएँ, तो अपने ही वंशजों का अथवा परिजनों का अनिष्ट तक कर देते हैं, लेकिन यदि ये पितृगण अपने वंशजों अथवा परिजनों के द्वारा किए गए शास्त्रोक्त श्राद्धकर्मों के द्वारा सन्तुष्ट हों, तो बलयुक्त होते हैं और अपने वंशजों का कल्याण करते हैं|
पितृदोष होने पर व्यक्ति को कई प्रकार की परेशानियॉं यथा; सन्तान नहीं होना, विलम्ब से होना अथवा कन्या संतति की अधिकता, घर के किसी सदस्य का सदैव रोगग्रस्त रहना, छोटी-मोटी बातों पर घर के सदस्यों के मध्य कटुता या क्लेश उत्पन्न होना, पर्याप्त आमदनी होने पर भी धन की कमी होना, आकस्मिक एवं अनावश्यक कार्यों में धन का व्यय होना, सदैव चिन्ताग्रस्त रहना, आकस्मिक दुर्घटनाओं अथवा दीर्घकालिक बीमारियॉं इत्यादि का अनुभव होता है|
इन पितृदोषों का वर्णन बृहत्पाराशरहोराशास्त्र जैसे फलित ग्रन्थों सहित पुराणों में भी कई स्थानों पर उल्लिखित हुआ है| कई कथाओं द्वारा यह बताया गया कि पूर्वजों के सन्तुष्ट नहीं होने पर उनके वंशजों का विकास रुक गया और उन्हें कई प्रकार की समस्याओं का सामना भी करना पड़ा| इनकी सन्तुष्टि के लिए ही शास्त्रों में कई प्रकार के उपायों की व्यवस्था की गई है, जिनको नियमानुसार करने पर पितृदोष जैसे दोषों से बचा जा सकता है|