श्राद्ध एवं पिण्डदान आदि के लिए समस्त तीर्थों में गया तीर्थ का विशेष महत्त्व है| धर्मशास्त्रों के अनुसार मृत्यु के पश्चात् व्यक्ति पितृ योनि में पितृलोक में निवास करता हैऔर वहॉं रहकर सुख-दु:ख आदि का भी अनुभव करता है| यदि मृतक के पुत्र-पौत्रादि उसके निमित्त दान-पुण्य एवं श्राद्धादि करते हैं, तो उसे सुख की प्राप्ति होती है, लेकिन यदि उनके निमित्त श्राद्धादि कर्म नहीं किए जाएँ, तो पितृगण कुपित होकर पितृदोष-मातृदोष आदि उत्पन्न करते हैं, जिसके फलस्वरूप उसे एवं उसके पुत्र-पौत्रादि को सन्तति नाश धनक्षय, दुर्घटना, बीमारी इत्यादि का सामना करना पड़ता है|
यही कारण है कि पूर्वजों की प्रसन्नता के निमित्त आश्विन माह का कृष्ण पक्ष श्राद्धपक्ष के नाम से जाना जाता है| पितृॠण से मुक्त होने के लिए उक्त श्राद्ध दिवसों में श्राद्ध करने के अतिरिक्त गया श्राद्ध भी करना चाहिए| कूर्म पुराण के अनुसार गया तीर्थ पितरों को अत्यन्त प्रिय है और वे यहॉं सदैव निवास करते हैं|
‘पितॄणां चातिवल्लभम्’
वायुपुराण में तो यहॉं तक कहा गया है कि श्राद्ध करनेके निमित्त पुत्र को गया में आया देखकर पितृगण अत्यन्त प्रसन्न होकर उत्सव मनाते हैं|
‘गयाप्राप्तं सुतं दृष्ट्वा पितॄणामुत्सवो भवेत्’
गया तीर्थ की महिमा का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि श्राद्ध के प्रारम्भ में किए जाने वाले पूजन में सर्वप्रथम गया का और भगवान् गदाधर का स्मरण किया जाता हैऔर ऐसी मानसिक भावना की जाती है कि इन दोनों के सान्निध्य में ही सम्पूर्ण श्राद्ध कार्य किया जा रहा है|
गया स्थान के इतने पवित्र होने के पीछे पुराणों में एक अन्तर्कथा प्राप्त होती है| उस कथा के अनुसार प्राचीन काल में गयासुर नामक एक दैत्य था, जो कि भगवान् विष्णु का परम भक्त था| उसने कई हजार वर्षों तक कठोर तप कियाऔर जब उसके तप से प्रसन्न होकर भगवान् विष्णु एवं अन्य देवता उसके पास पहुँचे, तो उसने वरदान स्वरूप यही मॉंगा कि वह देवताओं, ॠषियों, मुनियों, तपस्वियों इत्यादि से भी अधिक पवित्र हो जाए| सभी देवताओं ने ‘तथास्तु’ कहकर उसकी यह इच्छा पूर्ण कर दी| वरदान के प्रभाव से गयासुर की देह अत्यन्त पवित्र हो गई और अब जो भी उसे देखता अथवा उसका स्पर्श करता है, वह स्वर्ग चला जाता| सृष्टि की मर्यादा टूटते देख ब्रह्मा जी अत्यन्त चिन्तित हुए और तब उनसे भगवान् विष्णु ने कहा – आप गयासुर के पास जाकर यज्ञ करने के लिए यज्ञभूमि के रूप में उसका परम पावन शरीर मॉंग लें| ब्रह्मा जी गयासुर के पास गए और उन्हें देखकर गयासुर अत्यन्त प्रसन्न हुआऔर बोला – ब्रह्मन्! आज मेरा जन्म सफल हुआ, आपके दर्शन से मैं कृतार्थ हुआ| कृपा कर आप यहॉं आने का प्रयोजन बताएँ| तब ब्रह्मा जी ने कहा – हे गयासुर! समस्त पृथ्वी में भ्रमण कर मैंने जिन-जिन तीर्थों को देखा, उन सभी में तुम्हारी देह की पवित्रता की तुलना कोई भी नहीं कर सकता, अत: तुम्हारे शरीर के तुल्य अन्य कोई पवित्र स्थान नहीं है| भगवान् विष्णु के वर से तुम्हारी देह सर्वाधिक पावन हो गई है, अत: मुझे यज्ञ करने के लिए तुम अपने शरीर का दान कर दो| गयासुर बोला – ‘हे देवेश! आज मैं धन्य हो गया, जो स्वयं विधाता मेरे घर पधारे हैं| यह शरीर तो आप ही की रचना है| मैं इसे सहर्ष आपको समर्पित करता हूँ| यह कहते हुए उस विराट शरीर वाले गयासुर ने अपनी देह भगवान् ब्रह्मा को समर्पित कर दी और उत्तर की ओर सिर तथा दक्षिण की ओर पैर करके सो गया| तत्पश्चात् ब्रह्मा जी ने यज्ञ की सामग्री तैयार की और उसके शरीर पर ही यज्ञानुष्ठान प्रारम्भ किया, किन्तु गयासुर का शरीर हिलने लगा| ब्रह्मा जी ने धर्म से कहकर पवित्र धर्मशिला उसके शरीर पर रखवायी, लेकिन फिर भी उसका शरीर हिलता रहा| तब ब्रह्मा जी ने अन्य देवताओं का एवं श्रीहरि का स्मरण किया| गदाधर भगवान् विष्णु अपने लोक से तत्क्षण वहॉं पहुँचे और उसके ऊपर स्थित हो गए और अपनी गदा के द्वारा गयासुर को स्थिर कर दिया| उस समय गयासुर ने यही प्रार्थना की, कि जब तक पृथ्वी, सूर्य, चन्द्रमा, नक्षत्रादि रहें तब तक ब्रह्मा, विष्णु, महेशादि सभी देवता वहॉं पर निवास करें और तभी से यह तीर्थ गयासुर के नाम से प्रसिद्ध हुआ और सभी देवी-देवता आज भी वहॉं व्यक्त एवं अव्यक्त रूप में विद्यमान हैं| यही कारण है कि यहॉं किए गए श्राद्ध तथा पिण्डदान से पितरों का तो उद्धार होता ही है, साथ ही श्राद्धकर्ता का भी कल्याण होता है|
सामान्यत: गुरु-शुक्र अस्त, अधिमास, जन्ममास, जन्मदिन, सिंहस्थ गुरु इत्यादि समयों पर श्राद्ध करना शुभ नहीं माना जाता है, लेकिन गया में सभी समय श्राद्ध किया जा सका है| गया श्राद्ध के लिए किसी भी समय का कोई प्रतिबन्ध नहीं है|
‘गयायां सर्वकालेषु पिण्डं दद्याद् विचक्षण:’
लेकिन फिर भी पितृपक्ष इस दृष्टि से अत्यधिक महत्त्व रखता है| इस अवधि में सभी पितृगण गया जी में तर्पण तथा पिण्डदान-श्राद्धादि के लिए पुत्र-पौत्रादि से विशेष आकांक्षा रखते हैं| सम्पूर्ण गया श्राद्ध मुख्य रूप से सत्रह दिनों में पूर्ण करने का निर्देश शास्त्रों में प्राप्त होता है, लेकिन यदि किसी कारणवश सत्रह दिन गया में रहकर श्राद्ध करना सम्भव न हो सके, तो पन्द्रह दिन, सात रात अथवा तीन रात का निवास वहॉं अवश्य करना चाहिए| यदि यह भी सम्भव न हो, तो एक दिन के श्राद्धादि कर्म तो अवश्य ही करने चाहिए|
यहॉं हम गया तीर्थ स्थल में तीन दिन के श्राद्धस्थलों के एवं एक दिन के श्राद्ध स्थलों के कृत्य दे रहे हैं :
गया तीर्थ में तीन दिन के श्राद्ध स्थलों के कृत्य
पहले दिन के कृत्य
प्रथम दिन फल्गु तीर्थ में स्नान एवं तर्पण आदि कृत्य करने के पश्चात् पार्वण विधि से श्राद्ध करके भगवान् गदाधर का पूजन एवं पञ्चगव्याभिषेक करना चाहिए एवं तत्पश्चात् श्राद्ध करना चाहिए|
दूसरे दिन के कृत्य
ब्रह्मकुण्ड एवं प्रेतशिला में तर्पण और श्राद्ध करके रामतीर्थ पर श्राद्ध करें| इसके पश्चात् कौए और श्वान को बलि प्रदान करेंं| इसके अतिरिक्त पञ्चतीर्थ स्नान एवं श्राद्ध भी करें|
तीसरे दिन के कृत्य
विष्णुपद की सभी वेदियों पर श्राद्ध करने के पश्चात् अक्षय वट पर श्राद्ध एवं शय्यादान करें, तत्पश्चात् ब्राह्मण भोजन करवाकर श्राद्ध सम्पन्न करें| अन्त में साक्षी श्रवण रूप प्रार्थना कर अपने समस्त कर्म भगवान् को अर्पित कर दें|
गया तीर्थ में एक दिन के श्राद्ध स्थलों के कृत्य
वैसे तो कम से कम तीन दिन के श्राद्ध कर्म करने चाहिए, लेकिन शारीरिक अस्वस्थता, अत्यन्त समयाभाव अथवा अन्य किसी विशेष परिस्थिति के कारण तीन दिन तक वहॉं रहकर श्राद्ध कर्म करना सम्भव न हो सके, तो पूर्ण श्रद्धा भाव से एक दिन के श्राद्धस्थलों के कृत्य तो अवश्य ही करने चाहिए| सर्वप्रथम श्राद्धकर्ता को स्नानादि से पवित्र होकर शुद्ध होकर स्वच्छ वस्त्र धारण कर लेने चाहिए| इसके बाद फल्गु तीर्थ में स्नान, तर्पण करने के पश्चात् पार्वण विधि से श्राद्ध करना चाहिए| तत्पश्चात् विष्णुपद की सभी वेदियों पर तीर्थप्राप्ति निमित्तक एक पिण्डदानात्मक श्राद्ध करके अक्षय वट तीर्थ पर जाना चाहिए और वहॉं यथासम्भव तीर्थप्राप्ति निमित्तक तीर्थ श्राद्ध अथवा केवल तीर्थ प्राप्ति निमित्तक पिण्डदानात्मक श्राद्ध करके शय्या दान और ब्राह्मण भोजन कराना चाहिए और श्रावणीय कर्म करवाने के पश्चात् तीर्थ पुरोहित से तीर्थ यात्रा की सम्पन्नता और पितरों की प्रसन्नता का आशीर्वाद ग्रहण करना चाहिए| गया श्राद्ध के लिए घर से प्रस्थान करने से पूर्व भी कई नियमों का ध्यान रखना बहुत आवश्यक होता है| यहॉं हम ऐसे ही कतिपय महत्त्वपूर्ण बातों का उल्लेख कर रहे हैं|
तीर्थ यात्रा के इच्छुक व्यक्ति को सर्वप्रथम किसी ज्योतिषी से गया यात्रा का उत्तम मुहूर्त पूछना चाहिएएवं तत्पश्चात् उस दिन से पूर्व के तीन दिवसों में अत्यन्त संयम एवं नियम से रहना चाहिए| प्रथम दिन एक समय ही भोजन करना चाहिए| दूसरे दिन हविष्यान्न (चावल, गेहूँ, जौ, मूँग, तिल आदि पवित्र अन्न एवं दूध, दही, घी इत्यादि गव्य पदार्थ) ग्रहण करने चाहिए| तीसरे दिन निराहार रहकर उपवास करना चाहिए| चौथे दिन स्नानादि कृत्यों से निवृत्त होकर गणेशाम्बिका एवं इष्टदेवता का स्मरण करना चाहिए और गया श्राद्ध करने का संकल्प लेना चाहिए| तत्पश्चात् घर में ही घृत मिश्रित हविष्यान्न से घृत श्राद्ध करना चाहिए| इससे यात्रा का प्रारम्भ माना जाता है| इसके पश्चात् यदि किसी प्रकार का जननशौच अथवा मरणशौच होता है, तो उसका दोष श्राद्धकर्ता को नहीं लगता है| तत्पश्चात् एक दोने में धुले हुए अक्षत एवं पञ्चगव्य मिलाकर रख लेंऔर अक्षतों से छींटें मारते हुए ईशान कोण से प्रारम्भ कर ईशान कोण तक गॉंव की अथवा नगर की परिक्रमा करनी चाहिए| यदि परिक्रमा सम्भव न हो, तो अपने घर की ही प्रदक्षिणा करनी चाहिए| इसके पश्चात् निम्नलिखित मन्त्र पढ़ते हुए कुछ अन्य अक्षत लेकर उन पर पितरों का आह्वान करना चाहिए:
पितृवंशे मृता ये च मातृवंशे तथैव च| ते गच्छन्तु मया सार्धं विमुक्त्यर्थं गयाशिरे॥
मातामहकुले ये च गतिर्येषां न विद्यते| ते गच्छन्तु मया सार्धं विमुक्त्यर्थं गयाशिरे॥
अजातदन्ता ये केचिद् ये च गर्भे प्रपीडिता:| ते गच्छन्तु मया सार्धं विमुक्त्यर्थं गयाशिरे॥
बन्धुवर्गाश्च ये केचिन् नामगोत्रविवर्जिता:| ते गच्छन्तु मया सार्धं विमुक्त्यर्थं गयाशिरे॥
अदग्धाश्च मृता ये च विषशस्त्रहताश्च ये| ते गच्छन्तु मया सार्धं विमुक्त्यर्थं गयाशिरे॥
अग्निदाहमृता ये च सिंहव्याघ्रहताश्च ये| ते गच्छन्तु मया सार्धं विमुक्त्यर्थं गयाशिरे॥
अग्निदग्धाश्च ये केचिद् विद्युच्चौरहताश्च ये| ते गच्छन्तु मया सार्धं विमुक्त्यर्थं गयाशिरे॥
रौरवे चान्धतामिस्रे कालसूत्रे च ये गता:| ते गच्छन्तु मया सार्धं विमुक्त्यर्थं गयाशिरे॥
असिपत्रवने घोरे कुम्भीपाके च ये गता:| ते गच्छन्तु मया सार्धं विमुक्त्यर्थं गयाशिरे॥
अनेकयातनासंस्था: प्रेतलोके च ये गता:| ते गच्छन्तु मया सार्धं विमुक्त्यर्थं गयाशिरे॥
पशुयोनिं गता ये च पक्षिकीटसरिसृपा:| ते गच्छन्तु मया सार्धं विमुक्त्यर्थं गयाशिरे॥
अनेकयातानासंस्था ये नीता यमकिङ्करै:| ते गच्छन्तु मया सार्धं विमुक्त्यर्थं गयाशिरे॥
जात्यन्तरसहस्रेषु भ्रमन्त: स्वेन कर्मणा| ते गच्छन्तु मया सार्धं विमुक्त्यर्थं गयाशिरे॥
अथवा वृक्षयोनिस्था ये जीवा: पापकारिण:| ते गच्छन्तु मया सार्धं विमुक्त्यर्थं गयाशिरे॥
मानुष्यं दुर्लभं येषां कर्मणा कोटिजन्मभि:| ते गच्छन्तु मया सार्धं विमुक्त्यर्थं गयाशिरे॥
येऽबान्धवा बान्धवा वा येऽन्यजन्मनि बान्धवा:| ते गच्छन्तु मया सार्धं विमुक्त्यर्थं गयाशिरे॥
दिव्यन्तरिक्षभूमिस्था: पितरो बान्धवादय:| ते गच्छन्तु मया सार्धं विमुक्त्यर्थं गयाशिरे॥
दिव्यन्तरिक्षभूमिस्था: पितरो बान्धवादय:| ते गच्छन्तु मया सार्धं विमुक्त्यर्थं गयाशिरे॥
गुरुश्वशुरबन्धूनां ये चान्ये बान्धवादय:| ते गच्छन्तु मया सार्धं विमुक्त्यर्थं गयाशिरे॥
ये मे कुले लुप्तपिण्डा: पुत्रदारविवर्जिता:| ते गच्छन्तु मया सार्धं विमुक्त्यर्थं गयाशिरे॥
क्रियालोपगता ये च ये चान्धा: पङ्गवस्तथा| ते गच्छन्तु मया सार्धं विमुक्त्यर्थं गयाशिरे॥
विरूपा आमगर्भाश्च ज्ञाताज्ञाता: कुले मम| ते गच्छन्तु मया सार्धं विमुक्त्यर्थं गयाशिरे॥
आब्रह्मणो ये पितृवंशजाता मातुस्तथावंशभवा मदीया:| वंशद्वयेऽस्मिन् मम दासभूता दारास्तथैवाश्रितसेवकाश्च॥
मित्राणि शिष्या: पशवश्च वृक्षा दृष्टा ह्यदृष्टाश्च कृतोपकारा:| जन्मान्तरे ये मम वंशजाता आयान्तु ते विष्णुपदे मया सह॥
उसके पश्चात् पितरों को जिन अक्षतों पर आह्वाहित किया गया है, उन अक्षतों को किसी पोटली में बॉंधकर अथवा छिद्रयुक्त एक नारियल के गोले में रखकर अपने साथ ले जाएँ और गया कूप में अथवा धर्मारण्य में डाल दें| पितरों का आह्वान करने के पश्चात् यथाशक्ति एक, तीन अथवा पॉंच ब्राह्मणों को भोजन करवाना चाहिए| श्राद्ध करने के पश्चात् बचे हुए हविष्यान्न को भी अपने साथ ले जाना चाहिए और घर से कुछ दूर जाकर इसी हविष्यान्न से पारणा करनी चाहिए| अगले दिन स्नानादि नित्यकर्मों से निवृत्त होकर तीर्थ यात्रा के निमित्त काषाय रङ्ग के वस्त्र अथवा ऐसे वस्त्र जिनका एक कोना गेरुएँ रङ्ग से रङ्गा हो, धारण कर लेना चाहिए| ये वस्त्र यात्रा के निमित्त ही धारण किए जाते हैं| अन्य समय में श्वेत वस्त्र अथवा स्वच्छ वस्त्र धारण कर सकते हैं| गया धाम पहुँचने के पश्चात् सर्वप्रथम निम्नलिखित मन्त्रों से प्रणाम करना चाहिए|
ॐ गयायै नम: अथवा ॐ गदाधराय नम:
तदनन्तर पूर्वोक्त विधि से श्राद्ध आदि कर्म निष्पन्न करने चाहिए| श्राद्ध आदि कर्म करने वाले व्यक्ति को निम्नलिखित तथ्यों का भी ध्यान रखना चाहिए|
1. यात्रा में परान्न भक्षण, मिथ्या वार्तालाप, दानादि ग्रहण, अपवित्र भोजन, कटु भाषण, निन्दा, एक से अधिक समय भोजन करना, छल, कपट, चोरी, विश्वासघात इत्यादि का निषेध होता है|
2. यदि रास्ते में कोई अन्य तीर्थ स्थान पड़ जाए, तो वहॉं भी यथासम्भव पार्वण विधि से अथवा तीर्थश्राद्ध विधि से श्राद्ध करना चाहिए| इतना ही नहीं गया जाने वाले व्यक्ति को अपने मित्रों, सगोत्रियों एवं अन्य जानकारों के भी नाम और गोत्र अपने साथ ले जाने चाहिए और उनके नाम से यथासम्भव तर्पण एवं पिण्डदान करना चाहिए|
