शास्त्रों में कहा गया है कि ‘श्रद्धया पितृन् उद्दिश्य विधिना क्रियते यत्कर्म तत् श्राद्धम्’ अर्थात् श्रद्धापूर्वक पितरों के उद्देश्य से जो कर्म किया जाता है, वह श्राद्ध कहलाता है| इसका मूल आशय यह है कि श्राद्धकर्म में सर्वप्रमुख श्रद्धा ही होती है| श्रद्धा के सामने अन्य विधि-विधान या उपक्रम गौणमात्र रह जाते हैं| महर्षि पराशर के अनुसार ‘देश काल तथा पात्र में हविष्यादि विधि द्वारा जो कर्म तिल (यव) और दर्भ (कुश) तथा मन्त्रों से युक्त होकर श्रद्धापूर्वक किया जाए, वही श्राद्ध है|’ शास्त्रों में श्राद्ध कर्म सम्पादित करने के विधान को बहुत श्रमसाध्य एवं कठिन प्रक्रिया से वर्णित किया गया है, लेकिन हम यहॉं सर्वोपयोगी, सरल एवं सुगम विधि का वर्णन कर रहे हैं|
पितरों के निमित्त श्राद्ध दो समयों पर किया जाता है, प्रथम मृत्यु या क्षय तिथि पर एवं द्वितीय पितृपक्ष में| वर्ष के जिस माह की जिस तिथि को पितर की मृत्यु हुई थी, उस तिथि को किया जाने वाला श्राद्ध ‘एकोदिष्ट श्राद्ध’ कहलाता है| जैसा कि इसके नाम से विदित हो रहा है, यह श्राद्ध एकमात्र उसी पितर की संतुष्टि के लिए किया जाता है| इसके विधान में उस दिन एक पिण्ड का दान किया जाता है एवं एक ब्राह्मण को भोजन करवाया जाता है| द्वितीय प्रकार का श्राद्ध आश्विन माह के कृष्णपक्ष की उस तिथि को किया जाता है, जिस तिथि को पितर की मृत्यु हुई थी| यह श्राद्ध ‘पार्वण श्राद्ध’ कहलाता है| शास्त्रोक्त विधान के अनुसार तो पार्वण श्राद्ध के दिन ९ ब्राह्मणों को भोजन करवाना चाहिए, लेकिन यदि संकल्प लेकर संध्यावंदन करने वाले एक ब्राह्मण को भी श्रद्धापूर्वक भोजन करवा दिया जाए, तो वह भी पर्याप्त होता है| वर्तमान समय में श्राद्धपक्ष में ९ ब्राह्मणों को भोजन करवाना संभव नहीं हो पाता है, अत: पूर्ण श्रद्धा से एक ब्राह्मण को ही भोजन करवाएँ, तो वह भी पर्याप्त होगा| यहॉं इस प्रकार के सांकल्पिक श्राद्ध की संक्षिप्त विधि दी जा रही है|
सर्वप्रथम श्वेत वस्त्र धारण कर अपने पितरों का मानसिक स्मरण करें और पूर्वाभिमुख होकर बैठ जाएँ| अपने हाथ में संकल्प के लिए त्रिकुश, काले तिल एवं जल लेकर निम्न संकल्प का उच्चारण करें :
संकल्प : ॐ विष्णु: विष्णु: विष्णु: नम: परमात्मने पुरुषोत्तमाय ॐ तत्सत् अद्यैतस्य विष्णोराज्ञया जगत्सृष्टिकर्मणि प्रवर्तमानस्य ब्रह्मणोह्नि द्वितीय परार्धे श्री श्वेतवाराह कल्पे वैवस्वत मन्वन्तरे अष्टाविंशति तमे कलियुगे कलि प्रथम चरणे जम्बुद्वीपे भरतखण्डे भारत वर्षे आर्यावर्तान्तर्गतैक देशे (राज्य का नाम) प्राप्त अन्तर्गते (जिले का नाम) जिलान्तर्गते (अपने क्षेत्र का नगर या कॉलोनी का नाम) नाम्नि क्षेत्रे (निकटस्थ तीर्थ स्थान का नाम) नाम्नि तीर्थस्थलस्य समीपे बौद्धावतारे विक्रम संवत् २०६५, प्लवनाम संवत्सरे सूर्य दक्षिणायने, शरद् ॠतौ आश्विन मासे कृष्णपक्षे (तिथि का उच्चारण करें) तिथौ (वार का उच्चारण करें) वासरे कन्या राशि स्थित सूर्ये धनु राशि स्थिते देवगुरौ शेषेषु ग्रहेषु यथा यथा राशि स्थान स्थितेषु सत्सु एवं ग्रहगुणगण विशेषण विशिष्टायां शुभ पुण्य तिथौ (अपने गोत्र का उच्चारण करें) गोत्रोत्पन्नोऽहं (अपने नाम का उच्चारण करें) शर्मा/वर्मा/गुप्ता१ अहं अस्मत् पितृपितामह प्रपितामहानां सपत्नीकानां ताताम्बात्रितयमित्यादि शास्त्रबोधितावशिष्ट सम्बन्धी बान्धवानां ये चाऽस्मत्तो अभिवाञ्छन्ति तेषां च क्षुत्पिपासा निवृत्ति पूर्वकं क्षयतृप्ति सम्पादनार्थं ब्राह्मण भोजनात्मकं साङ्कल्पिक श्राद्धं तथा पञ्चबलि कर्मं च करिष्ये|
इसके पश्चात् संकल्प के जल को भूमि पर छोड़ देना चाहिए| तत्पश्चात् ब्राह्मण भोजन करवाने से पूर्व पञ्चबलि (गोबलि, श्वानबलि, काकबलि, देवादिबलि एवं पिपीलिका बलि) करनी चाहिए|
पॉंच दोनों या पत्तों में अलग-अलग भोजन सामग्री निकाल लें| तत्पश्चात् एक-एक दोना लेकर क्रमश: गोबलि, श्वानबलि, काकबलि, देवादिबलि एवं पिपीलिका बलि दें :
1. गोबलि :
गोबलि दोने या पत्ते पर निकाली जाती है, निकालते समय निम्न मन्त्र का उच्चारण करें :
सौरमेय्या: सर्वहिता: पवित्रा पुण्यराशय:|
प्रतिगृह्णन्तु मे ग्रासं गावस्त्रैलोक्यमातर:॥ इदं गोभ्यो न मम्॥
2. श्वानबलि :
श्वान बलि भी दोने या पत्ते पर निकाली जाती है| इसे निकालते समय निम्न मन्त्र का उच्चारण करें :
द्वौ श्वानौ श्यामशबलौ वैवस्तवकुलोद्भवौ|
ताभ्यामन्नं प्रयच्छामि स्यातामेतावहिंसकौ॥ इदं श्वभ्यां न मम्॥
3. काकबलि :
काकबलि भूमि पर निकाली जाती है| इसे निकालते समय निम्न मन्त्र का उच्चारण करें :
ऐन्द्रवारुण वायव्यां याम्या वै नैर्ॠतास्तथा|
वायसा: प्रतिगृह्णन्तु भूमौ पिण्डं मयोज्झितम्॥ इदमन्नं वायसेभ्यो न मम॥
4. देवबलि :
यह बलि दोने या पत्ते पर निकाली जाती है| यह बलि देते समय निम्न मन्त्र पढ़ा जाता है|
देवा मनुष्या: पशवो वयांसि सिद्धा सयक्षोरगदैत्यसङ्घा:|
प्रेता: पिशाचास्तव: समस्ता ये चान्नभिच्छन्ति मया प्रदत्तम्॥ इदमन्नं देवादिभ्यो न मम॥
5. पिपीलिका बलि :
यह बलि भी पत्ते या दोने पर दी जाती है| यह बलि देते समय निम्न मन्त्र का उच्चारण किया जाता है :
पिपीलिका: कीटपतङ्गकाद्या बुभुक्षिता: कर्मनिबन्धबद्धा:|
तेषां हि तृप्त्यर्थमिदं मयान्नं तेभ्यो विसृष्टं सुखिनो भवन्तु॥
इदमन्नं पिपीलिकादिभ्यो न मम॥
पंचबलि के निमित्त निकाला गया समस्त भोजन पूर्वोक्त क्रम से सभी को खिला देना चाहिए|
पंचबलि कर्म करने के पश्चात् ब्राह्मण भोजन करवाना चाहिए| भोजन दान करना चाहिए एवं प्रेमपूर्वक भोजन करवाना चाहिए| भोजन में अन्न, घृत, चीनी, नमक आदि षड्रस युक्त सामग्री होनी चाहिए| इसके पश्चात् ब्राह्मणदेवता को साक्षात पितृदेवता समझकर उन्हें ताम्बूल दक्षिणादि देकर उनकी चार परिक्रमा करें, तदनन्तर पूर्णत: सन्तुष्ट कर विदा करें| इसके पश्चात् स्वयं भोजन करें|
श्राद्ध का फल पूर्णत: श्रद्धा पर निर्भर करता है| शास्त्रों में यहॉं तक कहा गया है कि श्राद्धकर्ता यदि अत्यन्त निर्धन हो और कुछ भी कर सकने की स्थिति में नहीं हो, तो पितरों के नाम से गाय को चारा खिलाना ही पर्याप्त होगा| यदि उसकी व्यवस्था भी नहीं कर सके दोनों हाथ उठाकर पितरों से प्रार्थना करें कि ‘हे पितृगण मेरे पास श्राद्ध के उपयुक्त कुछ भी नहीं है, न धन है, न धान्य है, मेरे पास सिर्फ श्रद्धा एवं भक्ति ही आपके लिए है| आप इन्हें ग्रहण कर मुझ पर कृपा करें’ ऐसा करने मात्र से ही पितृगण प्रसन्न हो जाते हैं|
टिप्पणी :
1. ब्राह्मण को नाम के आगे ‘शर्मा’, क्षत्रिय को ‘वर्मा’ एवं वैश्य को अपने नाम के आगे ‘गुप्ता’ लगाना चाहिए|