स्वामी जी ने ठसाठस भरे पांडाल पर दृष्टि डाली और ‘‘जय श्रीराम’’ का उद्घोष किया, तो श्रद्धालुओं ने पूरे जोश से ‘‘जय-जय श्रीराम’’ के उद्घोष ने दशों दिशाओं को गुंजायमान कर दिया| स्वामी जी ने पुन: कथा आरम्भ की ‘‘तुलसीदासजी पत्नी के कोमलपाश में ऐसे बँधे कि छह वर्ष तक पत्नी को पीहर नहीं भेजा| एक दिन वे प्रतिदिन की भांति यमुना पर गए हुए थे| पीछे से उनका साला आया और अपनी बहन को मायके ले गया|’’
स्वामी जी ने पांडाल में बैठे नौजवानों की ओर इंगित कर पूछा ‘‘अगर, प्रिय पत्नी को साला इस प्रकार ले जाए तो क्या करेंगे?’’
नौजवान बोल उठे ‘तुरंत, वापस ले आएँगे|’
स्वामी जी ने मुस्कुराते हुए कथा जारी रखी और कहा ‘‘तुलसीदासजी भी तब आपकी तरह युवा थे| वे यमुना से घर लौटे, तब पता चला कि पत्नी मायके चली गई है, तो वे ससुराल के लिए रवाना हो गए| देर रात वहॉं पहुँचे| सब सो गए थे| तुलसीदासजी ने आवाजें लगाई तो पत्नी ने द्वार खोला और रोजाना की तरह मुस्कुरा कर स्वागत करने की बजाय कहा कि ‘‘महाराज, आप प्रेम में अंधे हो गए हैं, आपको धिक्कार है|’’ साथ ही उसने कहा-
‘‘हाड़ मॉंस की देह मम तापर जितनी प्रीति|
तिसु आधी जो राम प्रति, अवसि मिटिहि भवभीति॥
अर्थात् ‘‘मेरी हाड़ मॉंस की देह से जितना प्रेम करते हो, यदि उससे आधा भी भगवान् श्रीराम से करते तो इस मोह-माया भरे संसार से मुक्ति मिल जाती|’’
स्वामी जी ने ङ्गिर नौजवानों की ओर देख चुटकी लेते हुए कहा ‘‘आज के युवा शायद वह नहीं कर सकते जो उस समय तुलसीदास जी ने किया| उन्होंने सोचा कि प्रभु ने उन पर कृपा की है और इस पतिव्रता के मुख से ऐसे वचन सुनवा मुझे मोहनिद्रा से जगाया है| उनका वैराग्य जाग गया और वे उसी समय रवाना हो गए| साला पीछे आया, उन्हें बहुत मनाया पर नहीं लौटे| उधर, पीछे पत्नी पछाड़ खाकर गिर पड़ी थी, अचेतावस्था से बाहर नहीं आयी और उसका देहावसान हो गया|’’
स्वामी जी ने कहा ‘‘यह घटना संवत् 1589 आषाढ़ कृष्ण नवमी बुधवार की है, तब तुलसीदासजी की आयु का 36वॉं वर्ष चल रहा था| वे ङ्गिर गॉंव नहीं गए| सीधे प्रयाग पहुँचे और साधु का वेष धारण कर तीर्थयात्रा पर निकल पड़े| वे कैलाश-मानसरोवर पहुँचे तो वहॉं काक-भुशुण्डीजी के दर्शन हुए| तीर्थाटन के बाद वे 50 वर्ष की उम्र में काशी पहुँच गए और वहॉं पर प्रतिदिन रामकथा कहने लगे|’’
स्वामी जी ने कहा कि रामकथा से एक पिशाच प्रसन्न हुआ और प्रकट हो तुलसीदासजी से कहा ‘‘जो चाहे सो मॉंग|’’
स्वामी जी ने पांडाल में बैठे भक्तों की ओर इशारा कर पूछा कि ‘‘आपमें से वे लोग हाथ खड़ा करें, जो धन-दौलत या पुत्र या मनोरमा पत्नी या रोजगार या व्यापार में उन्नति या पुत्र के लिए सुख आदि मॉंगते|’’
इस पर पांडाल में बैठे अधिकांश स्त्री-पुरुष ने हाथ खड़ा किया|
स्वामी जी मुस्कुराए और बोले ‘‘ यही मोहनिद्रा है, तुलसीदास जी तो पत्नी द्वारा धिक्कारे जाने पर इस निद्रा से जाग चुके थे| सो, उन्होंने सभी भौतिक सुखों की मॉंग करने के बजाय पिशाच को कहा कि मुझे तो श्रीराम प्रभु के दर्शन करवा दो|’’
स्वामी जी ने कहा ‘‘तुलसीदास जी की मॉंग सुन पिशाच सोच में पड़ गया| उसने कहा- महाराज, यह मेरे वश की बात नहीं है, परन्तु इसका मार्ग बता सकता हूँ| आप श्री राम के परम् भक्त हनूमान् जी से मिलें| इसके साथ ही उसने तुलसीदास जी को हनूमान् जी से मिलने की तरकीब भी बता दी|’’
स्वामी जी ने कहा ‘‘तुलसीदास जी उस प्रेत बताए गए तरीके से हनूमान् जी से मिले और उनके चरणों में गिर पड़े| मारुति ने जब उनका प्रयोजन पूछा तो तुलसीदास जी ने कहा ‘‘प्रभु राम के दर्शन करवा दो| इस पर वायुपुत्र ने कहा कि इसके लिए आपको चित्रकूट जाना पड़ेगा|’’
स्वामी जी कथा श्रवण में लीन तुलसीदास जी और श्रीराम मिलन का प्रसंग सुनने के प्रति व्याकुल श्रद्धालुओं की ओर देखा और कहा ‘‘रामेष्ट हनूमान् की आज्ञानुसार तुलसीदास जी चित्रकूट पहुँचे और वहॉं प्रदक्षिणा करते समय उन्हें घोड़े पर सवार रूप-लावण्य सम्पन्न दो राजकुमार आखेट पर जाते दिखाई दिए| उन्हें देख सुध-बुध खो बैठे तुलसीदास जी अपने प्रभु को पहचान ही नहीं सके| तभी हनूमान् जी प्रकट हुए और उन्हें सच्चाई बताई|’’
स्वामी जी ने कहा ‘‘समय से पहले और भाग्य से अधिक किसी को कुछ भी नहीं मिल सकता| यह बात इस घटना ने ङ्गिर सही सिद्ध कर दी| आराध्य सामने आए और तुलसीदास जी उन्हें पहचान नहीं सके अर्थात् जो कार्य जिस समय होना है, तभी होता है| बाद में, संवत् १६०७ में मौनी अमावस्या बुधवार को भगवान् श्री राम उनके सामने पुन: प्रकट हुए| इस बार वे बाल रूप में आए और तुलसीदास जी को कहा ‘‘बाबा, हमें चन्दन दो| हनूमान् जी सब कुछ देख रहे थे| वे यह सोचकर इस बार ङ्गिर महाराज, धोखा न खा जाएँ और यह अवसर भी नहीं गवॉं दें, तोते का रूप धारण कर आए एवं यह दोहा बोला :
‘चित्रकूट के घाट पर भइ संतन की भीर| तुलसीदास चंदन घिसे, तिलक देत रघुबीर॥
स्वामी जी ने कहा ‘‘हुआ यह कि प्रभु राम ने अपने हाथ से ही चन्दन ले लिया और तुलसीदास जी के ललाट पर लगा अन्तर्धान हो गए|’’
क्रमश: …