सन्त कबीर जहॉं अनुभूत ज्ञान का वट वृक्ष थे, वहीं आत्मसात योग्य तर्क के विद्वान् एवं मानव रूप में कोई अवतार ही थे, क्योंकि उनके जैसे हालात में सन्त शिरोमणी, ज्ञानकोष, परमभक्त और सत्यनिष्ठ होने की कल्पना भी नहीं की जा सकती, ऐसा होना तो दूर की बात है| बचपन में अभाव ऐसे थे कि उन्होंने न तो किसी शाला का मुख देखा, जो आँखों से देखा उसे ही अपनी सरल भाषा और सटीक शैली में उकेर कर जन-जन के हृदय तक को झंकृत किया| छोटे, किन्तु जेह्न तक को झकझोरने वाले उनके दोहे उनकी साखियॉं बन गईं, वही उनके बीजक बन गए| उन्होंने जहॉं परमात्मा, गुरु और धर्मस्थलों पर लिखा, वहीं आमजन या नारी पर भी अपने अनुभव से ऐसा प्रकाश डाला कि जिसने पढ़कर गुन लिया, उसका बेड़ा पार हो गया| कहते हैं, कामिनी कैसी भी हो, पुरुष को वासना के जाल में ङ्गँसाने का प्रयास करती है|
नारी काली उज्जली, नेक विमासी जोय|
सबही डारे ङ्गंद में, नीच लिए सब कोय॥
अर्थात् कामिनी चाहे काली हो-गोरी हो, अच्छी हो-बुरी हो, सभी वासना का ङ्गंदा पुरुष पर डालती है, ङ्गिर भी जो कामासक्त नीच पुरुष होते हैं, वे उसे साथ में लिए रहते हैं|
नारी की झॉंई पड़त, अन्धा होत भुजंग|
कोई साधू जन ऊबरा, सब जग मूआ लाग॥
अर्थात् कामिनी की छाया पड़ने से सर्प भी अन्धा हो जाता है, तो उस पुरुष की कितनी दुर्गति होगी, जो उसके संग रहता है|
कबीर ने विवाह क्यों किया? तो, कबीर कहते हैं –
नारी तो हम भी करी, पाया नहीं विचार|
जब जाना तब परिहरी, नारी बड़ी विकार॥
अर्थात् जब हमने ज्ञान प्राप्त नहीं किया था, तब हमने भी माया रूपी कामिनी से सम्बन्ध किया था, लेकिन जब ज्ञान प्राप्त हो गया, तब माया नारी को भारी विकारयुक्त जानकर त्याग दिया|