तुलसीदास चन्दन घिसे तिलक करे रघुवीर …

रामचरितमानस

भगवान् शिव की जटा से निकली भागीरथी पतित पावनी माता गंगा की कलकल लहरें, सुहानी शीतल पवन, चहचहाते आकाश में परवाज भरते पक्षी मानो राम-राम का उच्चारण कर रहे हों, हर ओर प्रकृति ने जैसे हृदय खोलकर अनुकम्पा करते हुए अपनी नयनाभिराम छटा बिखेरी हो, अर्थात् स्वर्ग-सा वातावरण| तट पर खुली हरितिमा लिए मैदान में विश्‍व प्रसिद्ध स्वामी जी का रामचरितमानस कथावाचन श्रवण कर जीवन सार्थक करने आए हजारों श्रद्धालुओं से ठसाठस भरा पांडाल|
निश्‍चित समय पर स्वामी जी के आगमन के साथ ही पांडाल में गूँजे ‘जय श्री राम ’ उद्घोष ने तीनों लोकों को मानो रामचरितमानस कथा सुनने का आमन्त्रण दे दिया| कथावाचन में एक-एक पल का विलम्ब भक्तों को बेचैन कर रहा था|
भक्तों की अपार आस्था देख स्वागत-अभिनन्दन की औपचारिकताओं को शीघ्र समाप्त करवा जैसे ही स्वामी ने कथावाचन आरम्भ करने के लिए मंच पर पदार्पण किया, एकबार पुन: ‘जय श्री राम’ के उद्घोष से वातावरण गुंजायमान हो गया|
स्वामी जी ने मंत्रोच्चार के साथ गुरु और ईश्‍वर वन्दन कर कथा का शुभारम्भ किया|
रचियता तुलसीदास जी का परिचय
स्वामी जी ने कहा ‘‘श्री रामचरितमानस के रचियता भक्त शिरोमणि श्रीमद्गोस्वामी तुलसीदास महाराज के बारे में जाने बिना श्री रामचरितमानस कथा करना उचित नहीं| इसलिए पहले हम तुलसीदास की जीवनी पर बात करेंगे, उसके बाद श्रीरामचरितमानस कथा वाचन|’’
स्वामी जी ने कहा ‘‘तुलसीदास जी को जन्म से ही विपरीत परिस्थितियॉं होने के उपरान्त सम्भवत: पूर्व जन्म के संचित कर्मों के कारण प्रभु की असीम कृपा प्राप्त हुई|
‘‘पंधरसीं चौव्वन-विसें कालिन्दी के तीर| श्रावण शुक्ला सत्तमी तुलसी धर्‌यो सरीर॥
स्वामी जी ने कहा कि ‘‘प्रयाग के समीप यमुना के दक्षिण तीर पर चित्रकूट जिले के राजापुर गॉंव में पाराशर गोत्रीय सरयूपारीण ब्राह्मण आत्मारामजी दूबे रहते थे| उनकी धर्मपत्नी हुलसी देवी थीं| संवत् १५५४ श्रावण शुक्ल सप्तमी की रात्रि में अभुक्त मूल नक्षत्र में उनको पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई| यह विलक्षण बालक मॉं के गर्भ में नौ नहीं, बारह माह रहा था|’’
स्वामी जी ने भक्तों से प्रश्‍न किया ‘‘जन्म होते ही प्रत्येक बालक क्या करता है?’’
हजारों कण्ठों से एक स्वर आवाज आयी ‘‘रोता है|’’
स्वामी जी हर्ष मिश्रित आश्‍चर्य से बोले ‘‘परन्तु, माता हुलसी देवी की कोख से जन्मे इस बालक ने रुदन नहीं किया, अपितु उस बालक के मुख से जीवन का पहला शब्द ‘राम’ निकला|’’
क्षणभर रुककर स्वामी जी ने श्रोताओं पर दृष्टि डाली और उसी भाव से उच्च स्वर में बोले ‘इस बालक ने ऐसा कर सभी को आश्‍चर्य में डाला ही था कि उसके मुख में झॉंकने पर उसके दॉंत देखते ही सभी ने दॉंतों तले अँगुली दबा ली| इतना ही नहीं, इस अद्भुत बच्चे का शरीर भी पॉंच वर्ष के बालक के समान था|’
स्वामी जी बोले ‘‘बालक के इन लक्षणों को देखकर पिता अनिष्ट की आशंका से भयभीत हो गए| ऐसे में उन्होंने बालक का परित्याग करने का निश्‍चय कर लिया| तीन दिन प्रतीक्षा के बाद भी बालक जीवित रहा, तो उन्होंने बच्चे को वन में छोड़ने का मन बना लिया| पति के इस निर्णय का पता जब माता हुलसी को चला तो वे दु:खी हो गईं|’
यह सुनकर पांडाल में पूर्ण नि:स्तब्धता पसर गई| श्रोताओं के मुख पर आशंका एवं चिन्ता का भाव स्पष्ट देखा जा सकता था| स्वामी जी कुछ देर रुककर श्रोताओं का मनोबल पढ़ रहे थे, ङ्गिर उन्होंने श्रद्धालुओं में बैठी महिलाओं को इंगित कर प्रश्‍न किया ‘‘ऐसेे में एक मॉं को क्या करना चाहिए?’’
हजारों माताओं का समवेत स्वर में उत्तर मिला ‘‘बच्चे की रक्षा करनी चाहिए|’’
स्वामी जी बोले ‘‘माता हुलसी ने भी अपने लाडले को किसी तरह बचाने के बारे में सोचा| उन्होंने अपने कलेजे के टुकड़े को विश्‍वसनीय दासी चुनियॉं को सुपुर्द कर दिया और अपने सारे गहने उसे दे बच्चे का मॉं की तरह पालन-पोषण करने को कहा|’’
स्वामी जी ने कथा आगे बढ़ाते हुए कहा ‘‘श्रावण शुक्ल दशमी की रात दासी चुनियॉं बालक को लेकर छुपती-छुपाती अपने गॉंव हरिपुर चली गई| इधर, चौथे दिन माता हुलसी का स्वर्गवास हो गया| दासी चुनियॉं माता हुलसी को दिए वचन को निभाते हुए बच्चे का मॉं की तरह लालन-पालन करने लगी|’
स्वामी जी ने मर्मस्पर्शी स्वर में कहा ‘‘इसे दुर्भाग्य कहें या प्रभु की लीला कि बालक साढ़े पॉंच साल का हुआ और दासी चुनियॉं भी चल बसी| उधर, पिता आत्माराम का भी बालक के जन्म के छह माह बाद ही निधन हो गया था| इस अभागे बालक का संसार में कोई नहीं था, वह अनाथ हो दर-दर भटकने लगा’’
पांडाल में पुन: सन्नाटा पसर गया| स्वामी जी ने जब क्षणिक अल्प विश्राम लिया तो श्रद्धालुओं की सिसकियॉं स्पष्ट सुनाई दीं|
स्वामी जी ने कहा ‘‘जिसका कोई नहीं, उसका तो ईश्‍वर होता है| यह बात सत्य साबित हुई| जगज्जननी मॉं पार्वती बालक की हालत देख द्रवित हो गईं और ब्राह्मणी का वेष धारण कर रोजाना शिशु को भोजन कराने आने लगीं| मॉं पार्वती ने ही बच्चे के वस्त्रादि की व्यवस्था भी कर दी|’’
स्वामी जी ने भाव विभोर होकर कहा ‘‘इस बालक का जन्म संसार में कुछ विलक्षण कर दिखाने के लिए हुआ था| तभी तो जहॉं माता पार्वती उसकी मॉं बन पालन-पोषण कर रही थीं, वहीं भगवान् शिव उसके जीवन को सही दिशा में मोड़ने पहुँच गए|’’
स्वामी जी बोले ‘‘देवाधिदेव शिव ने रामानुज सम्प्रदाय के महा- पुरुष भगवद् भक्त श्रीनरहर्यानन्दजी को स्वप्न में आज्ञा दी कि हरिपुर गॉंव के उस बालक को लाओ और उसका उपनयन कर पालन-पोषण करो| श्रीनरहर्यानन्द जी ने रुद्र की आज्ञा का पालन किया और बालक को हरिपुर से अयोध्या ले गए| संवत् १५६१ माघ शुक्ल पञ्चमी को उसका उपनयन कर उसका नाम जीवन का प्रथम शब्द ‘राम’ बोलने के कारण ‘रामबोला’ रखा| बालक की प्रतिभा छुपी नहीं रह सकी, उसने बिना सिखाए ही गायत्री मंत्र का उच्चारण कर दिया| अयोध्या में कुछ दिन रहने के बाद गुरु-शिष्य सूकरखेत चले गए, वहीं पर रामबोला को राममंत्र दीक्षा प्राप्त हुई|
स्वामी जी ने कथा श्रवण में लीन श्रद्धालुओं से सवाल किया ‘‘बच्चे को स्कूल में प्रवेश कराते समय पूरा नाम लिखाया जाता है या नहीं?’’
समवेत स्वर में उत्तर आया ‘हॉं|’
तब स्वामी जी बोले ‘‘उसकाल गुरु द्वारा मंत्रदीक्षा देने के बाद शिष्य को नया नाम दिया जाता था| बालक रामबोला का भी गुरु ने मंत्रोपदेश के बाद नाम तुलसीदास रखा| ङ्गिर, गुरु-शिष्य काशी चले गए| वहॉं तुलसीदासजी ने विश्‍वविख्यात पण्डित शेष सनातन जी के पास पन्द्रह वर्ष रहकर वेद-वेदाङ्ग का अध्ययन किया|’’
स्वामी जी ने कथा आगे बढ़ाते हुए कहा ‘‘जब शिक्षा पूर्ण हुई तो तुलसीदासजी को अपने घर की याद आयी और वे गुरु शेष सनातन जी से आज्ञा लेकर जन्मभूमि राजापुर गॉंव चले आए, वहॉं घर-परिवार सभी कुछ नष्ट हो गया था| उन्होंने माता-पिता का श्राद्ध किया और वहीं रहकर राम कथा सुनाने लगे|’’
स्वामी जी ने कहा ‘‘संवत् 1583 में ज्येष्ठ शुक्ल तेरस को भारद्वाज गोत्रीय सुन्दर कन्या के साथ उनका विवाह हुआ|’’
क्रमश: … …

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