आप दिव्यात्मा हैं

वचनामृत

परमहंस योगानन्द
ई श्‍वर ने हमें विविध स्वरूपों में मानवीय सम्बन्ध एक ही उद्देश्य के लिए दिए हैं| हमें एक दूसरे से सीखना है| एक अर्थ में प्रत्येक व्यक्ति हमारा गुरु र्है| बच्चे हमें सिखाते हैं, वे हमें अनुशासित करते हैं| उनके जीवन को उचित सॉंचे में ढालने में उनकी सहायता करने के लिए हमें अपार सहनशीलता सीखनी पड़ती है, अपने आप से, अपने स्वार्थ से बाहर निकलकर उन तक पहुँचना सीखना पड़ता है| बदले में हम भी उनके गुरु हैं क्योंकि उनका मार्गदर्शन करना और जीवन में अच्छी शुरुआत करने के लिए उन्हें प्रशिक्षित करना हमारा ही उत्तरदायित्व है|
इन सभी सम्बन्धों के कारण हमारे प्रेम का विस्तरण और शुद्धिकरण होता है, और मेरा विश्‍वास है कि दूसरों को चरम अर्थ में परिवर्तित केवल प्रेम ही कर सकता है| यदि आप अपने बच्चे या पति या पत्नी के पास उस प्रेम और अपार समझदारी की चेतना में ही सदैव जाएँ, चाहे वे आपको कुछ भी क्यों न करें या कहें, आपका कैसा ही अपमान क्यों न करें, तो अन्त में आप को जीत निश्‍चित है, परन्तु यह करते रहने के लिए आपके पास सहनशक्ति भी होनी चाहिए|
आप दूसरों में जिन गुणों को देखना चाहते हैं उन्हें अपने जीवन में प्रदर्शित कर उदाहरण स्थापित कीजिए| आदर्श जीवन का यह बहुत बड़ा विज्ञान है| परमहंस जी हमें बताते थे जब मैं अपने गुरु स्वामी श्री युक्तेश्‍वर जी के पास गया, तो उन्होंने कहा, ठीक से बर्ताव करना सीखो| और हम सबको इस संसार में ठीक से बर्ताव करना सीखना ही होगा, यही धर्म का विज्ञान है| जब ठीक से बर्ताव करना सीखेंगे तब आप भगवान् को समझ जाएँगे, क्योंकि तब आपका आचार-विचार ऐसा होगा कि प्रति पल आप को यह बोध रहेगा कि आप आत्मा है, यह मृत शरीर या मन नहीं| आत्मा सदैव ईश्‍वर की उपस्थिति के अमृत का पान करती रहती है| आप एक मृत जीव नहीं हैं, आप दिव्यात्मा हैं, इसलिए दिव्यात्माओं की तरह आचरण करना सीखिये| अपने हृदय रूपी उस आश्रय में भगवान को सर्वोपरि रखिये| जब भगवान् आपकी आत्मा के प्रियतम बनते हैं, आपकी आत्मा के सखा बनते हैं, आपकी आत्मा के माता-पिता, सहचर, गुरु बनते हैं तब आप धन्य हो जाते हैं| जीवन के ओर से खुशी प्रदान करता जाता है, दूसरों के साथ सम्बन्ध आनन्दप्रद अनुभव प्रदान करते हैं| आप अपने बच्चों से, अपने पति या पत्नी से ईश्‍वर के महत्तर प्रेम, समझदारी एवं सहानुभूति के साथ प्यार करने लगते हैं| भगवान् लोगों के परस्पर सम्बन्धों को मानवीय हृदयों के बीच के सम्बन्धों को और मजबूत करते हैंै तथा प्रेम को सीमित करने वाली या कुण्ठित करने वाली स्वार्थी आसक्ति से उनके सम्बन्धों को मुक्त करते हैं| अधिकार जताने की प्रवृत्ति से प्रेम की जितनी हानि होती है, उतनी किसी बात से नहीं होती| तुम मेरे हो इसलिए तुम्हें यह करना पड़ेगा, तुम्हारे साथ ऐसा व्यवहार करने का मुझे अधिकार है| इस प्रकार की सोच प्रायः मानवीय सम्बन्ध के लिए प्राणघातक आघात सिद्ध होती है|
पति को पत्नी के लिए, पत्नी को पति के लिए, बच्चों को मॉं-बाप के लिए, मॉं-बाप को बच्चों के लिए, इस प्रकार मनुष्यों को जब एक-दूसरे के लिए आदर नहीं होता, तब वे अपने वैयक्तिक नातों में असङ्गल हो जाते हैं| जब मानवीय सम्बन्धों में मैत्रीभाव का अभाव होता है, तब उन सम्बन्धों का ह्रास होता है| मित्रता के अभाव में पति-पत्नी के बीच का प्रेम, मॉं-बाप और बच्चों के बीच का प्रेम नष्ट हो जाता है| मित्रता दूसरे को अपने आप को व्यक्त करने की उसकी अपनी एकमात्र पहचान को व्यक्त करने की स्वतन्त्रता देती है|
जब दो आत्माओं के बीच पूर्ण समझदारी तथा परस्पर विचारों का आदान-प्रदान होता है, तब उनमें सच्ची मित्रता एवं सच्चा प्रेम होता है| जब लोग अपने पति या पत्नी के साथ, बच्चों के साथ तथा अन्य लोगों के साथ सम्बन्धों में मित्रता, आदर तथा स्नेह रखना सीखेंगे, तब वे कभी एक-दूसरे के साथ दुर्व्यवहार नहीं करेंगे या कभी ऐसे दुर्व्यवहार से दुःखी नहीं होंगे|•