स्वस्थ और नीरोगी जीवन के लिए शुद्ध हवा, स्वच्छ जल, अप्रदूषित अन्न और फल आदि की आवश्यकता होती है, लेकिन मानव की भोगलिप्सा इन सुलभ चीजों को अब दुर्लभ बना रही है| आज प्रकृति बहुत अंशों में प्रदूषित हो चुकी है| प्रदूषण से प्रकृति को कैसे मुक्त बनाया जाए? इसके बहुत सारे उपाय हैं, उनमें से एक है देवपूजा| देवता दो तरह के होते हैं जड़ एवं चेतन| सूर्य, चन्द्रमा, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु आदि सभी जड़ देवता हैं, फिर भी ये हमें जीवन देते हैं| इनमें से एक भी नहीं हो, तो जीवन असम्भव हो जाएगा| वायु दो मिनट नहीं मिले, तो प्राणों का अन्त हो जाएगा| जल नहीं मिले, तो कुछ ही दिनों के हम मेहमान होंगे| धरती नहीं हो, तो हम कहॉं रहेंगे, कहॉं टिकेंगे और वनस्पति कहॉं से आएगी? यदि ये शुद्ध होंगे, तो निश्चय ही हमारा जीवन भी स्वस्थ और नीरोगी होगा|
श्रीकृष्ण का संदेश है कि इस यज्ञानुष्ठान के द्वारा जड़ देवों को शुद्ध करो, वे तुम्हें नीरोगी और सुखी रखेंगे| दूसरे प्रकार के देवता हैं चेतन| वे हैं हमारे माता-पिता, दादा-दादी, गुरु और अन्य बुजुर्ग| इनसे हम बहुत-कुछ सीखते हैं| इनसे हमें बहुत-कुछ मिलता है| यदि माता-पिता नहीं हों, तो हमें कहॉं से यह जीवन मिलता तथा कहॉं से यह काया मिलती? अत: इनकी सेवा करना ही इनकी पूजा करना है|
प्रकृति देवता की पूजा का माध्यम अग्निहोत्र है| मनुष्य वैदिक काल से ही आरोग्य प्राप्ति, पुत्र और धन प्राप्ति, दीर्घायु और ईश्वर की प्राप्ति के लिए कर्मकाण्ड करता आ रहा है, जिसमें मन्त्र जप, वैदिक स्तोत्र पठन, हवन, यज्ञ, तर्पण आदि अनुष्ठान मुख्य हैं| प्रात:काल तथा संध्या को मन्त्र के द्वारा स्थापित अग्नि में हवन करने के यज्ञ को ‘अग्निहोत्र’ कहते हैं| इस अग्निहोत्र में जो वस्तुएँ डाली जाती हैं उनका आरोग्यता पर विशेष प्रभाव पड़ता है| सूक्ष्म परमाणुओं में विभक्त हो जाने से हवा का गुण बढ़ जाता है| अग्निहोत्र का यह आधारभूत सिद्धान्त है| इस सिद्धान्त को आयुर्वेद, एलोपैथी, होम्योपैथी आदि सब चिकित्सा प्रणालियॉं मान्यता प्रदान करती हैं|
मन्त्रों और स्तोत्र पाठ से काया की रक्षा होती है| श्रीरामचरितमानस में कहा गया है कि ‘मन्त्र महामणि विषय व्याल के| मेटत कठिन कुअंक भाल के॥ मन्त्रों और स्तोत्र पाठ के साथ ही यज्ञ भी किया जाता है| वेदों में यज्ञ-हवन क्रिया से व्याधि और प्रदूषण निवारण के साधनों की स्पष्ट व्याख्या है| यज्ञ में जिन चीजों का हवन किया जाता है और उनसे जो ऊर्जा निस्सृत होती है, वह हल्की होने के कारण ऊपर उठती है| जब यह नाक के द्वारा भीतर खींची जाती है, तो सबसे पहले मस्तिष्क, तदनन्तर फैफड़ों में, फिर समस्त शरीर में व्याप्त हो जाती है| इसके साथ ही हवन सामग्रियों के जो अत्यधिक महत्त्वपूर्ण सुगन्धित सूक्ष्म अंश होते हैं, वे मस्तिष्क के उन क्षेत्रों तक पहुँचते हैं, जहॉं अन्य उपायों से उनका स्पर्श तक नहीं किया जा सकता| अचेतन की गहन परतों तक यज्ञीय ऊर्जा की पहुँच होती है तथा वहॉं के मनोविकारों और व्याधियों को निकालकर बाहर करने में सफलता मिलती है|
मानव की आरोग्यता उसके अन्दर मौजूद शुद्ध खून पर निर्भर है| खून जितना शुद्ध होगा| मनुष्य उतना ही स्वस्थ होगा| अशुद्ध खून का शोधन करने का कार्य फेफड़ों का है| यदि फेफड़ों में शुद्ध और पौष्टिक वायु प्रवेश करेगी, तो मनुष्य नीरोगी और कान्तियुक्त होगा| यदि फेफड़ों में अग्निहोत्र की वायु प्रवेश करेगी, तो रक्त अपने-आप शुद्ध हो जाएगा| हवन में बहुत प्रकार की सामग्रियों का प्रयोग किया जाता है जैसे : गुग्गल, चन्दन, अगर, तगर, पीली सरसों, जटामांसी, शतावरी, नागरमोथा, कालीमिर्च, इन्द्र जौ, सरल देवदारू, राल, गिलोय, गोरखमुण्डी, गोखरू, मूसली, जायफल, कर्पूर, शैलेय, लौंग, इलायची, केसर, दूब, आँवला, मजिष्ठा, हल्दी, शालपर्णी, हरड़, काकोली, नीमपत्र, बच, द्रोणपुष्पी, अपामार्ग, सहदेवी, अर्कमूल, त्रिकटु, घी, सर्पगन्धा, मधु, गोदुग्ध, दही, गोमूत्र, गोमय, पलाश, पीपल, बेल आदि तमाम औषधियॉं ही हैं| इन सामग्रियों को हवन में डालने का मुख्य कारण यही है कि ये अपने विशेष प्रभाव से तमाम व्याधि, शोक, भूत-प्रेत बाधा, वशीकरण कर्म, अगदीय कर्म, रक्षोहण कर्म, मानस कर्म, भौतिक कर्म आदि सम्पादित करती है| इनमें कुछ सामग्रियों का प्रयोग लकड़ी में आग प्रज्ज्वलित करने के लिए किया जाता है जैसे; बेल, पलाश, पीपल, देवदारु, अर्क, चन्दन, नीम आदि| कुछ की पत्तियॉं काम में लाई जाती हैं जैसे आम, जामुन, बेल, कैथ, बिजौरा नीबू के पत्ते, मंगल कलश पर रखे अथवा लगाए जाते हैं अथवा द्वार पर बॉंधे जाते हैं| बरगद, गूलर, पीपल, देवदारू, प्लक्ष आदि की छाल समिधा हेतु काम में ली जाती है| अगतीय कर्म (विषघ्न प्रभाव) हेतु शिरीष, काली मिर्च, खदिर, मंजिष्ठा आदि का इस्तेमाल किया जाता है| रक्षाकार्ङ्म हेतु जटामांसी, गुग्गुल, गोरखमुण्डी, अपामार्ग, कुशा, आँवला, दूब, पंचामृत आदि का प्रयोग हवन के रूप में किया जाता है| सर्वोषधि से स्नान किया जाता है जैसे कूठ, जटामांसी, हल्दी, बच, शैलेय, चन्दन, मुरा, कुर्जर आदि|
आयुर्वेद में दवाइयॉं प्रभाव (आयुर्वेद में किसी पदार्थ में निहित खास शक्ति) से काम करती है| इनकी महत्ता के बारे में ॠषि-मुनि पहले से ही परिचित थे| यही कारण है कि वैदिक काल से इनका प्रयोग होता आ रहा है| जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त इनकी उपस्थिति पायी जाती है| हवन में प्रयोग करने के कारण वातावरण में शुद्धता है| इन दवाइयों के साथ घी आदि के धूम वायुमण्डल को संक्रमण से मुक्त करते हैं| पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश की शुद्धता होती है जिससे मनुष्य की व्याधि प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है| प्राकृतिक विधि-विधानों का पालन करते हुए जो व्यक्ति रोजाना नियमपूर्वक वनौषधियों से (हवन सामग्रियॉं) अग्निहोत्र में हवन करता है, वह कभी बीमार नहीं होता और स्वस्थ जीवन व्यतीत करता है| यज्ञ के दौरान आग में जो घी डाला जाता है वह समाप्त नहीं होता, बल्कि वह परमाणुओं में टूटकर समस्त वायुमण्डल को शुद्ध कर देता है| यह कैसे काम करता है? इसे एक उदाहरण के द्वारा अच्छी तरह समझा जा सकता है| स्थूल मिर्च को आप जेब में डालकर घूमते रहें, कुछ नहीं होगा| उसी को खरल में रखकर कूटें, तो उसकी धमक से छींकें आने लगेंगी और यदि उसी को आग में डाल दें, तो आस-पास के सारे लोग परेशान हो जाएँगे| आखिर क्यों परेशान हो जाएँगे? क्योंकि अग्नि स्थूल चीज को तोड़ देती है और वस्तु सूक्ष्म होकर परिमित जगह में कैद नहीं रहकर दूर-दूर तक प्रभाव डालती है| फ्रांस के शोधकर्ता प्रो. टिलवर्ट का कहना है कि शक्कर (खॉंड़) के धुएँ में वायु शुद्ध करने की अदम्य ताकत है| इससे हैजा, तपेदिक, चेचक आदि का विष शीघ्र ही समाप्त हो जाता है| डॉ. टाटलिक के मुनक्का से टाइफाइड के कीटाणु मात्र तीस मिनट में तथा दूसरी व्याधियों के कीटाणु घण्टे-दो घण्टे में नष्ट हो जाते हैं|
उपर्युक्त तथ्यों से यह स्पष्ट हो जाता है कि अग्निहोत्र से न केवल बीमारियॉं दूर हो जाती हैं, बल्कि उसमें प्रदूषित वायुमण्डल को शुद्ध करने की अगाध शक्ति है| आज बहुत सारे शोध संस्थानों ने इसे प्रमाणित भी कर दिया है|
