Published : July, 2008
कहा जाता है कि हिमालय की गुफाओं में ऐसे अनेक सिद्ध पुरुष हैं, जिनकी आयु सैंकड़ों—हजारों वर्ष है| वे इतनी लम्बी आयु योग के माध्यम से प्राप्त करते हैं| ऐसे योगियों का परिचय आम जनता से नहीं हो पाता है, किन्तु वे एक विशेष उद्देश्य की प्राप्ति के लिए अथवा आत्म साक्षात्कार और परमात्मा से एकाकार होने के अन्तिम लक्ष्य की प्राप्ति के लिए इस पृथ्वी पर इतने वर्षों तक विद्यमान रहते हैं| कुछ युग पुरुष ऐसे होते हैं, जो मानव कल्याण के लिए स्वयं को जन सामान्य के बीच में लाते हैं, तब उनके बारे में ज्ञात हो पाता है|
योग के क्षेत्र में ‘बाबाजी’ के नाम से प्रसिद्ध महावतार बाबा हुए हैं| वे ईसा के युग में थे और आज भी हैं| महावतार बाबा लुप्त प्राय: भारतीय विद्या ‘क्रियायोग’ को इस संसार को देने के उद्देश्य से 19वीं शताब्दी में लाहिड़ी महाशय के समक्ष प्रकट हुए थे और उन्हें अपना शिष्य बनाकर उनको ‘क्रियायोग’ में दीक्षित किया|
महावतार बाबा के बारे में ज्यादा जानकारी उपलब्ध नहीं है, जो भी जानकारी है, वह उन लोगों के माध्यम से मिली है, जिनके सामने वे प्रकट हुए हैं| सन् 1868 में उन्होंने श्यामाचरण लाहिड़ी को प्रथम बार दर्शन दिए थे| लाहिड़ी जी की डायरियों से पता लगता है कि उन्होंने 1868 के बाद महावतार बाबा के अनेक बार दर्शन किए थे| लाहिड़ी महाशय के शिष्य रामगोपाल मजूमदार और युक्तेश्वर गिरि को भी महावतार बाबा के दर्शन हुए थे| लाहिड़ी महाशय के माध्यम से मैत्र महाशय, स्वामी केवलानन्द आदि को भी महावतार बाबा के दर्शन हुए हैं| उक्त दर्शनों का उल्लेख या तो लाहिड़ी महाशय ने किया है अथवा परमहंस योगानन्दजी ने किया है| इनके अतिरिक्त अनेक व्यक्ति और भी हैं, जो महावतार बाबा के साथ साक्षात् वार्तालाप करने का दावा करते हैं, उनमें से प्रमुख हैं एस.ए.ए. रमैह, वी.टी. नीलकान्तन और मार्शल गोविन्दन|
प्रारम्भिक जीवन
महावतार बाबा के प्रारम्भिक जीवन के बारे में जानकारी नहीं मिलती है, लेकिन यह अनुमान लगाया जाता है कि इनका प्राकट्य लगभग दो हजार वर्ष पूर्व हुआ था| लाहिड़ी महाशय और उनके शिष्यों ने उनके प्राकट्य के बारे में कुछ भी नहीं लिखा है, किन्तु एस.ए.ए. रमैह के शिष्य मार्शल गोविन्दन सच्चिदानन्द ने अपनी पुस्तक ‘बाबाजी एण्ड दि 18 सिद्धा क्रिया योगा ट्रेडिशन’ में न केवल महावतार बाबा की जन्म तिथि का उल्लेख किया है, वरन् उनके प्रारम्भिक जीवन के बारे में भी जानकारी दी है| इसके अनुसार महावतार बाबा का जन्म 30 नवम्बर, 203 ई. को तमिलनाडु के तटवर्ती गॉंव जो अब पारणजिपेत्तई के नाम से जाना जाता है, में नम्बूदरी ब्राह्मण परिवार में हुआ था| महावतार बाबा का जन्म वृषभ लग्न में हुआ था और लग्न रोहिणी नक्षत्र में था| भगवान् श्रीकृष्ण का जन्म भी वृषभ लग्न और रोहिणी नक्षत्र में हुआ था| महावतार बाबा को ‘कृष्णावतार’ के रूप में जाना जाता है| परमहंस योगानन्दजी ने उन्हें कृष्ण के रूप में ही देखा है|
महावतार बाबा का परिवार मूलत: दक्षिण भारत के पश्चिम क्षेत्र के मालावार का था, वहॉं से वे तमिलनाडु आए थे| उनके पिता पारणजिपेत्तई में एक शिव मन्दिर के पुजारी थे| वर्तमान में यह मंदिर शिव के पुत्र मुरुगन स्वामी (कार्तिकेय) का है|
मार्शल गोविन्दन के अनुसार महावतार बाबा का बचपन का नाम नागराज था| 5 वर्ष की उम्र में एक व्यापारी ने उनका अपहरण कर लिया और उन्हें आधुनिक कोलकाता के पास दास के रूप में बेच दिया| उससे एक धनवान् व्यापारी ने उन्हें खरीदा था और खरीदकर उन्हें स्वतन्त्र कर दिया| वहां से शिशु नागराज संन्यासियों के एक दल में सम्मिलित हो गए और वे भारत की महान् धार्मिक एवं दार्शनिक परम्पराओं को सीखने लगे, लेकिन वे इस सभी से सन्तुष्ट नहीं हुए| तभी उन्हें दक्षिण भारत के महान् सिद्ध अगस्त्यार के बारे में जानकारी मिली| वे दक्षिण भारत में आए और उन्होंने अगस्त्यार के शिष्य बोगंथार से ध्यान और सिद्धान्तम् की शिक्षा श्रीलंका के पास एक द्वीप पर ग्रहण की| लगभग 4 वर्ष तक उनके यहां इनका अभ्यास करने के उपरान्त वे इनमें और ‘सर्विल्प समाधि’ में पारंगत हो गए| 15 वर्ष की आयु में गुरु बोगंथार की आज्ञा से वे परम गुरु अगस्त्यार के यहां पहुँचे| अगस्त्यार उस समय तमिलनाडु में कोरत्रालम के पास निवास कर रहे थे| वहां पहुँचकर उन्होंने महान् योगी अगस्त्यार से ‘क्रिया कुण्डलिनी प्राणायाम’ की शिक्षा ली| इसमें प्रशिक्षण प्राप्त करने के पश्चात् अगस्त्यार से आज्ञा प्राप्त करके किशोर नागराज बद्रीनाथ के हिमालय की गुफा में इस प्राणायाम का अभ्यास करने के लिए आ गए| यहां उन्होंने लगभग 18 महीने तक उक्त प्राणायाम का अभ्यास किया और सिद्ध बन गए| उसके पश्चात् आजतक वे ‘क्रियायोग’ की दीक्षा विभिन्न युगों के व्यक्तियों को देते आ रहे हैं| ज्ञातव्य रहे कि अगस्त्यार भी वर्तमान में सशरीर जीवित हैं| इस प्रकार अगस्त्यार और उनके शिष्य महावतार बाबा दोनों ही सशरीर अमर हैं|
ईसामसीह से सम्पर्क
ऐसा बताते हैं कि महावतार बाबा ईसामसीह के साथ सदा सम्पर्क में रहते थे| दोनों ही उन अदृश्य तरंगों के माध्यम से वार्तालाप करते थे, जो योगियों के पास होती हैं| जैसाकि परमहंस योगानन्दजी ने लिखा है ‘महावतार बाबाजी ईसामसीह के साथ सदा सम्पर्क में रहते हैं| ये दोनों मिलकर मोक्षदायक स्पन्दन तरंगों को भोगते रहते हैं तथा उन्होंने इस युग के उद्धार के लिए आध्यात्मिक प्रक्रियाएँ तैयार की हैं| एक शरीरी और दूसरा अशरीरी दोनों पूर्ण ज्ञानी महागुरुओं का कार्य है, राष्ट्रों को युद्ध की, जातिवाद की, धार्मिक भेदभाव की तथा भौतिकवाद की अशुभ प्रक्रियाओं का परित्याग करने के लिए प्रेरणा देना|’
शङ्कराचार्य और कबीर को दीक्षा
महावतार बाबा ने विभिन्न युगों में उत्पन्न हुए व्यक्तियों को उनके उद्देश्यों की पूर्ति के लिए सहायता दी और उन्हें क्रियायोग में दीक्षित किया| आदि शङ्कराचार्य ने भी उनसे क्रियायोग की दीक्षा ली थी| लाहिड़ी महाशय एवं स्वामी केवलानन्द ने बताया था कि महावतार बाबा ने उन्हें शङ्कराचार्य जी के साथ उनकी भेंट के बारे में कई विवरण सुनाए थे|
महावतार बाबा ने 15वीं शताब्दी में सुप्रसिद्ध कवि, योगी एवं दार्शनिक कबीर को भी क्रियायोग की दीक्षा दी थी| 19वीं शताब्दी में महावतार बाबा से दीक्षित होने वाले योगी थे, लाहिड़ी महाशय|
श्यामाचरण इधर आओ!
लाहिड़ी महाशय का महावतार बाबा से सर्वप्रथम परिचय 1868 में हुआ था| महावतार बाबा ने योग विद्या के माध्यम से लाहिड़ी महाशय का स्थानान्तरण रानीखेत करवाया| एक दिन जब वे हिमालय की तराइयों में सर्वे के लिए निकले हुए थे, तब महावतार बाबा ने उन्हें आवाज दी ‘श्यामाचरण इधर आओ|’ लाहिड़ी महाशय इस आवाज से चौंके और पीछे म़ुड़कर देखा, तो एक बाबाजी खड़े थे| लाहिड़ी महाशय को आश्चर्य हुआ कि मैं इन बाबाजी से कभी नहीं मिला, तो भी ये मेरा नाम जानते हैं| महावतार बाबा ने लाहिड़ी महाशय को बताया कि वे चालीस वर्ष से इनकी प्रतीक्षा कर रहे थे| उन्हें पता था कि वे इस ओर आएँगे, तब उन्हें बुलाकर दीक्षा दी जाएगी| महावतार बाबा ने अपनी गुफा में ले जाकर लाहिड़ी महाशय को क्रियायोग की दीक्षा दी| जनवरी, 1869 में महावतार बाबा ने लाहिड़ी महाशय को इस विश्व में क्रियायोग के प्रचार के लिए वहॉं से विदा किया और कहा कि ‘मैंने ही तुम्हारा स्थानान्तरण रानीखेत करवाया था, अब तुम्हारा स्थानान्तरण शीघ्र ही मिर्जापुर के लिए हो जाएगा और तुम गृहस्थ जीवन में रहते हुए क्रियायोग का प्रचार करो| जब तुम मुझे बुलाओगे मैं तुम्हारे पास आ जाऊँगा|’
लाहिड़ी महाशय ने महावतार बाबा द्वारा दिए गए निर्देशों के अनुरूप जीवनभर क्रियायोग का प्रचार किया| उन्होंने बाद में भी कई बार महावतार बाबा से अलग—अलग स्थानों पर मुलाकात की थी| ऐसी कुछ मुलाकातों का विवरण उन्होंने अपनी डायरियों में लिखकर या अपने शिष्यों को बोलकर सुनाया|
अच्छा लाओ, हलुआ खिलाओ!
महावतार बाबा से दीक्षा लेने के उपरान्त जब लाहिड़ी महाशय मिर्जापुर जा रहे थे, तो कुछ दिन वे मुरादाबाद ठहरे| वहॉं उनके कई मित्र रहते थे| एक दिन धर्म पर चर्चा चल रही थी, तो उनके एक मित्र ने कहा कि ‘वर्तमान में कोई ऐसा साधु नहीं है, जिसके पास अलौकिक शक्ति हो, सभी पाखण्डी हैं|’
लाहिड़ी महाशय ने इसका विरोध किया और कहा ‘नहीं! ऐसी बात नहीं है, वर्तमान में भी ऐसे पहुँचे हुए साधु हैं, जो किसी भी स्थान पर आ-जा सकते हैं|’
लगभग सभी मित्रों ने लाहिड़ी महाशय के इस कथन का विरोध किया और वे अपनी बात पर डटे रहे| तब लाहिड़ी महाशय ने कहा कि ‘मैं तुम्हें इसका सबूत दे सकता हूँ| थोड़ी देर में ही मैं अपने ध्यानबल से एक ऐसे साधु को बुला सकता हूँ, जिसके पास अलौकिक शक्तियॉं हैं और वे इच्छानुसार कहीं भी आ जा सकते हैं|’
मित्रों का कौतुहल बढ़ गया उन्होंने कहा ‘अच्छा बुलाओ|’
लाहिड़ी महाशय दूसरे कमरे में गए और वहॉं उसे बन्द करके ध्यानावस्था में बैठ गए| उन्होंने अपने गुरुदेव महावतार बाबाजी का ध्यान किया| थोड़ी देर में अँधेरे कमरे में एक प्रकाशपुञ्ज आया वह धीरे—धीरे भौतिक रूप में आने लगा और देखते—देखते महावतार बाबाजी के रूप में परिवर्तित हो गया| सामने गुरुदेव को देखकर लाहिड़ी महाशय ने साष्टांग दण्डवत् प्रणाम किया|
महावतार बाबा लाहिड़ी महाशय से नाराज होकर बोले ‘तुमने मुझे एक छोटी-सी बात के लिए बुला लिया| प्रतिज्ञाबद्ध होने के कारण ही तुम्हारे बुलाने पर यहॉं आया हूं, किन्तु सिर्फ तमाशे या प्रदर्शन के लिए मुझे स्मरण करना तुम्हारे लिए उचित नहीं है|’
लाहिड़ी महाशय ने मन ही मन विचार किया कि वास्तव में गलती हो गई है| इसलिए उन्होंने क्षमा मॉंगते हुए कहा कि ‘अविश्वासियों के मन में विश्वास पैदा करना ही मेरा उद्देश्य था|’
महावतार बाबा ने कहा ‘अब भविष्य में मेरा स्मरण करने पर तुम्हें मेरे दर्शन नहीं होंगे| जब भी तुम्हें आवश्यकता होगी, मैं स्वयं ही आऊँगा|’
लाहिड़ी महाशय ने हाथ जोड़कर निवेदन किया कि ‘जब आप आ ही गए हैं, तो कृपा करके सबको एक बार दर्शन देकर कृतार्थ करें|’
बाबाजी बोले ‘ठीक है! बुला लो सबको| मैं नहीं चाहता कि सबके सामने तुम्हारी बात मिथ्या साबित हो|’
लाहिड़ी महाशय ने कमरे का दरवाजा खोल दिया और सभी मित्रों को अन्दर बुला लिया| सभी मित्र उस अलौकिक दिव्य आत्मा को अपलक देखते रहे| उनमें से एक मित्र ने मन में विचार किया, ‘हो सकता है, यह सामूहिक सम्मोहन हो|’ त्रिकालदर्शी और दूसरों के मन की बात को जानने वाले महावतार बाबा को लाहिड़ी महाशय के मित्रों के मन में हुई इस शंका का पता लग गया और वे हँसते हुए सबसे पहले उसी मित्र के पास आए और बोले कि ‘लो मेरे शरीर पर हाथ लगाओ|’
‘देखो, शरीर तुम्हारे जैसा ही है, न और गर्म भी है|’ तत्पश्चात् वे शेष सभी मित्रों के पास गए और उन्हें अपने शरीर की उष्णता का अनुभव करवाया|
सभी मित्रों की शंकाएँ दूर हो चुकी थीं| क्षमा मॉंगते हुए सभी मित्र उनके चरणों में गिर गए|
किसी भी प्रकार की शंका न रहे इस लिए महावतार बाबा बोले ‘अच्छा लाओ हलुआ खिलाओ|’
महावतार बाबा ने सभी के साथ हलुआ खाया और सबको आशीर्वाद दिया, तदुपरान्त वे पुन: प्रकाशपुञ्ज में परिवर्तित हो गए और वहॉं से अदृश्य हो गए|
ऐसे दिखते हैं, महावतार बाबा
महावतार बाबा के जिन लोगों ने दर्शन किए हैं, उन सभी का कहना है कि उन पर आयु का कोई प्रभाव दृष्टिगोचर नहीं होता है, वे अधिक से अधिक 25 वर्ष की आयु के युवक दिखाई पड़ते हैं| उनका रंग गेहुँआ है| जयपुर के सत्यातन आश्रम के ब्रह्मलीन पहाड़ी बाबा जो कि लाहिड़ी महाशय की शिष्य परम्परा के ही थे, का कहना है कि ‘उनका रंग और मुखाकृति दक्षिण भारत के लोगों की भॉंति है|’ लाहिड़ी महाशय के शिष्य रामगोपालजी और युक्तेश्वर जी का कहना था कि महावतार बाबा जी लाहिड़ी महाशय के समान ही दिखते थे अन्तर केवल यही था कि वे उनकी तुलना में अधिक युवा दिखते थे|
महावतार बाबाजी के साथ कुछ दिन हिमालय में रह चुके स्वामी केवलानन्द जी का कहना था कि ‘महावतार बाबाजी अपने भक्तों को भिन्न—भिन्न रूपों में दर्शन देते थे, कभी दाढ़ी-मूँछ के साथ, कभी दाढ़ी मूँछ के बिना|’ परमहंस योगानन्दजी लिखते हैं कि ‘महागुरु बाबाजी के नेत्र काले, शान्त और दयार्द हैं, उनके लम्बे चमकीले केश ताम्रवर्ण के हैं| कभी—कभी बाबाजी का मुखारविन्द लाहिड़ी महाशय की मुखाकृति से मिलता—जुलता दिखाई पड़ता है, कभी—कभी तो दोनों की मुखाकृतियों में इतना घना सादृश्य दिखाई पड़ता था कि परिवर्ती आयु में लाहिड़ी महाशय को आसानी से युवक सदृश बाबाजी के पिताजी के रूप में समझ लिया जा सकता था|’
क्या खाते हैं बाबाजी?
स्वामी केवलानन्द जी का कहना था कि बाबाजी कुछ भी खाते—पीते नहीं हैं| उनकी अक्षयदेह के लिए आहार की आवश्यकता नहीं है| हॉं, यह अवश्य है कि जब वे भक्तों को दर्शन देते हैं, तब लौकिक शिष्टाचार के रूप में मिष्टान्न, फल, खीर या दही ले लेते हैं| मुरादाबाद में लाहिड़ी महाशय के मित्रों के साथ उन्होंने हलुआ खाया था| पहाड़ी बाबा के एक शिष्य को दर्शन देकर उन्होंने अचार मॉंगा था|
कहॉं रहते हैं बाबाजी?
मार्शल गोविन्दन लिखते हैं कि बाबाजी का आश्रम बद्रीनाथ के पास हिमालय की पहाड़ियों में है| उनके आश्रम का नाम ‘गौरी—शङ्कर पीतम’ है| उनके साथ उनकी बहिन ‘माताजी’ भी हैं| वे भी क्रियायोग में पूर्णत: दक्ष हैं और ‘बाबाजी’ की भॉंति कहीं भी आ-जा सकती हैं|
महावतार बाबाजी के साथ रह चुके स्वामी केवलानन्दजी ने परमहंस योगानन्दजी को बाबाजी के बारे में बताया कि वे अपनी मण्डली के साथ पर्वतों में एक स्थान से दूसरे स्थान पर परिभ्रमण करते रहते हैं| उनकी छोटी-सी मण्डली में दो अत्यन्त उन्नत अमरीकी शिष्य भी हैं| एक स्थान पर कुछ समय तक रहने के पश्चात् बाबाजी का आदेश होता है ‘डेरा—डंडा उठाओ’|
लाहिड़ी महाशय ने जब उनका प्रथम बार दर्शन किया था, तब वे रानीखेत से लगभग 15 मील दूर द्रोणगिरि अथवा दुनागिरि पर्वत जो कि द्वाराहाट पर्वत श्रेणी का एक भाग है, पर एक कुटी या गुफा में रहते थे| लाहिड़ी महाशय को दीक्षित करने के बाद कुछ ही दिनों में वे वहॉं से चले गए|
लाहिड़ी महाशय को प्रयाग में कुम्भ के मेले के अवसर पर ‘बाबाजी’ के दर्शन हुए| लाहिड़ी महाशय के शिष्य युक्तेश्वर जी को भी ‘बाबाजी’ के दर्शन प्रयाग के कुम्भ के अन्य मेले में हुए थे| बाद में युक्तेश्वर जी को ‘बाबाजी’ के दर्शन सेरमपुर और काशी में लाहिड़ी महाशय के घर पर हुए| स्वामी केवलानन्द जी बाबाजी के साथ हिमालय में रहे थे| लाहिड़ी महाशय के एक अन्य शिष्य रामगोपालजी को ‘बाबाजी’ और ‘माताजी’ दोनों के ही दर्शन काशी में गंगा के तट पर दशाश्वमेघ घाट पर हुए थे|
लाहिड़ी महाशय के पुत्र के निमंत्रण पर बाबाजी के दर्शन उन्हें बनारस स्थित अपने घर में ही हुए थे|
एस.ए.ए. रमैह और वी.टी. नीलकान्तन को बाबाजी ने दक्षिण भारत में दर्शन दिए थे|
लाहिड़ी महाशय की शिष्य परम्परा के भक्तों को ‘बाबाजी’ अब भी दर्शन देते रहते हैं और ये दर्शन सामान्यत: बद्रीनाथ, केदारनाथ, हिमालय अंचल आदि क्षेत्रों में ही होते हैं|
लाहिड़ी महाशय का कहना था कि सच्चे मन से जब भी कोई व्यक्ति बाबाजी के नाम का स्मरण करता है, तब उस पर आध्यात्मिक आशीर्वाद की वर्षा होती है|
मैं शरीर त्याग रहा हूँ!
लाहिड़ी महाशय के समय की ही बात है, एक बार ‘बाबाजी’ ने शरीर त्यागने का मानस बनाया था| इस घटना के प्रत्यक्षदर्शी रामगोपालजी ने परमहंस योगानन्दजी को बताया था कि गंगा के तट पर ‘माताजी’, ‘बाबाजी’ और लाहिड़ी महाशय की एक मीटिंग हुई थी| उसमें लाहिड़ी महाशय की कृपा से रामगोपालजी भी उपस्थित थे| रामगोपालजी वहॉं चलकर गए थे, जबकि ‘बाबाजी’, ‘माताजी’ और लाहिड़ी महाशय प्रकाश पुञ्ज से प्रकट हुए थे| ‘बाबाजी’ ने ‘माताजी’ को अपनी इच्छा से अवगत कराया, उनका कहना था कि जिस उद्देश्य के लिए उन्होंने अभी तक शरीर धारण किया हुआ था, वह अब पूरा हो चुका है, अत: उन्हें यह शरीर त्याग देना चाहिए| साथ ही उन्होंने कहा कि मेरे शरीर या अशरीरी होने से कोई फर्क नहीं पड़ेगा| इस पर माताजी ने कहा कि गुरुदेव जब आपके शरीर और अशरीर होने से कोई फर्क नहीं पड़ रहा, तो कृपया शरीरी ही बने रहिए| ‘माताजी’ की प्रार्थना पर महावतार बाबा ने शरीरी ही बने रहने का निश्चय कर लिया और देह त्यागने के विचार को त्याग दिया|
सर्वशक्तिमान् हैं बाबाजी
लाहिड़ी महाशय के संस्मरणों से ज्ञात होता है कि ‘बाबाजी’ न केवल सर्वव्यापी हैं, वरन् सर्वशक्तिमान् भी हैं| वे जो भी इच्छा करते हैं, वह भौतिक रूप से प्रकट हो जाता है| द्रोणगिरि पर्वत पर जब लाहिड़ी महाशय को उन्होंने क्रियायोग की दीक्षा दी थी, तो उससे पहले उन्होंने उन्हें भौतिक इच्छाओं से तृप्त करने और उन इच्छाओं से उन्हें दूर करने के उद्देश्य से हिमालय की पहाड़ी पर स्वर्ण महल की रचना कर दी थी| लाहिड़ी महाशय बताते हैं कि इस महल की आभा और सुन्दरता मानव कल्पना से परे और अलौकिक थी| स्वर्ण महल की सैर करने के उपरान्त ‘बाबाजी’ ने उन्हें क्रियायोग की दीक्षा दी थी| लाहिड़ी महाशय बताते थे कि उसके पश्चात् बाबाजी ने उन्हें आँखें बन्द करने के लिए कहा और कुछ ही पल में वह स्वर्ण महल गायब हो गया|
इस खाई में कूद जाओ!
‘बाबाजी’ सामान्यत: स्वयं क्रिया योग में दीक्षा नहीं देते हैं| वे लाहिड़ी महाशय के शिष्यत्व का आदेश देते हैं| यदि वे स्वयं क्रिया योग की दीक्षा देते हैं, तो या तो वे अपने शिष्य का चयन स्वयं करते हैं और यदि कोई उनका ही शिष्यत्व स्वीकार करता है, तो उसकी वे परीक्षा भी लेते हैं| इस सम्बन्ध में स्वामी केवलानन्द जी का एक संस्मरण उल्लेखनीय है| स्वामी केवलानन्द जी जब ‘बाबाजी’ के साथ थे, तब उनके सामने एक अपरिचित व्यक्ति बाबाजी को गुरु बनाने के लिए आया| उसने कहा ‘महाराज! आप अवश्य ही महान् हैं, मैं इन दुर्गम पर्वतों में आपकी खोज में महीनों से भटकता रहा हूँ, आपसे प्रार्थना है कि मुझे शिष्य रूप में ग्रहण करें|’
‘बाबाजी’ ने उसकी बात अनसुनी कर दी और उसे कोई जवाब नहीं दिया| इस पर अपरिचित व्यक्ति पास में स्थित एक गहरी खाई की ओर इशारा करते हुए बोला ‘यदि आपने मुझे अपना शिष्य नहीं स्वीकारा, तो मैं इस खाई में कूद जाऊँगा|’
‘बाबाजी’ तपाक से बोले ‘अच्छा, इस खाई में कूद जाओ|’
जैसे ही ‘बाबाजी’ का आदेश हुआ, पलक झपकते ही वह अपरिचित व्यक्ति हजारों मीटर गहरी खाई में कूद गया| उसके प्राण—पखेरू उड़ गए| ‘बाबाजी’ ने अपने शिष्यों को आदेश दिया कि ‘उस अपरिचित व्यक्ति के मृत शरीर को लेकर आओ|’ शिष्य उस लहू—लुहान मृत शरीर को लेकर आए, तब ‘बाबाजी’ ने उसके शरीर पर हाथ फेरा, तो उसके सभी घाव ठीक हो गए और वह जीवित हो गया| उसके बाद ‘बाबाजी’ ने उससे कहा कि ‘तुम दीक्षा से पूर्व की परीक्षा में सफल हो गए हो, अब मैं तुम्हें अपना शिष्य स्वीकार करता हूँ|’
बाबाजी की भाषा
‘बाबाजी’ ने जिनको दर्शन दिए हैं, वे बताते हैं कि सामान्यत: बाबाजी हिन्दी भाषा में बात करते हैं, लेकिन वे सभी भाषाओं में पारंगत हैं| स्वामी केवलानन्द जी का कहना है कि उनकी शिष्य मण्डली में दो विदेशी भी हैं| वी.टी. नीलकान्त को उन्होंने अंग्रेजी भाषा में पुस्तकें डिक्टेट की थीं|
हरियाखान बाबा—हैदाखान बाबा—शिवगोरक्ष बाबाजी
और महावतार बाबा
महावतार बाबा के सम्बन्ध में अल्प जानकारी उपलब्ध होने के कारण एक दूसरे के विरोध वाली बातें भी प्रचलित हो रही हैं| बाबा हरिदास लिखते हैं कि हरियाखान बाबा ही महावतार बाबा थे| हरियाखान बाबा 1861 से 1924 ई. तक रहे थे| श्री महेन्द्र बाबा ने भी इस बात का समर्थन किया है| आर.इ.डेविस जो कि परमहंस योगानन्द के शिष्य थे, ने भी इसी प्रकार का निष्कर्ष निकाला है|
हैदाखान बाबा के सम्बन्ध में यह प्रचलित है कि वे महावतार बाबा थे| हैदाखान बाबा उत्तर भारत में सक्रिय रहे थे और 1984 में ब्रह्मलीन हो गए| लियोनार्ड ओर ने सौन्द्रराय के साथ उनसे मुलाकात की थी, उनके बारे में अपनी पुस्तक में काफी कुछ लिखा है|
योगिराज गुरुनाथ सिद्धनाथ ने अपनी आत्मकथा में शिवगोरक्ष बाबा जी को महावतार बाबा बताया है|
महावतार बाबा के सम्बन्ध में अल्प जानकारी होने के कारण और उनकी लोकप्रियता अधिक होने के कारण यूरोप, संयुक्त राज्य अमेरिका तथा कनाड़ा में अनेक ऐसे केन्द्र खुला गए हैं, जो कि क्रिया योग का प्रशिक्षण देते हैं और वहॉं के प्रशिक्षकों द्वारा महावतार बाबा से दीक्षा लेने के बारे में अथवा उनसे महावतार बाबाजी के लगातार सम्पर्क में रहने का प्रचार किया जाता है|